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करोना के बाद सपनों को सच करने की जिम्मेदारी ✍️प्रो.संजय द्विवेदी Featured

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)

करोना के बाद सपनों को सच करने की जिम्मेदारी ✍️प्रो.संजय द्विवेदी

संकट कितने भी बड़े, गहरे और लाइलाज हों। एक नायक को उम्मीदों और सपनों के साथ ही होना होता है। वह चाहकर भी निराशा नहीं बांट सकता। अवसाद नहीं फैला सकता। उसकी जिम्मेदारी है कि टूटे हुए मनों, दिलों और आत्मा पर लग रही खरोंचों पर मरहम ही रखे। ऐसे कठिन समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 12 मई 2020 के राष्ट्र के नाम संदेश की भावनाओं को समझा जाना चाहिए। करोना के अंधेरे समय में जब दुनिया की तमाम प्रगतिशील अर्थव्यवस्थाएं संकटों से घिरी हैं और घबराई हुई हैं, तब भी वे उम्मीदों और सपनों का साथ नहीं छोड़ते। एक समर्थ नेता की तरह वे लोगों में निराशा नहीं भरते, बल्कि भरोसा जगाते हैं। वे निराश और हताश नहीं हैं, बल्कि संकटों में अवसर की तलाश कर रहे हैं। वे करोना महामारी के व्यापक प्रसार के क्षणों में भी कहते हैं कि “हम करोना से लड़ेंगे और आगे बढ़ेंगे।”

    करोना संकट के बाद अखबार बुरी खबरों से भरे पड़े हैं। गांव जाते हुए ट्रेन से कटते श्रमिक, भूख से बिलखते हुए बच्चे, गहरी असुरक्षा से घिरे छोटी गाड़ियों, साइकिलों, मोटरसाइकिलों और पैदल ही गांव को जाते लोग जैसी तमाम छवियां मन को दुखी कर जाती हैं। इस नकारात्मकता के संसार में सोशल मीडिया पर अखंड विलाप करते लोग भी हैं, जो लोकतंत्र की बेबसी और हमारे सरकारी तंत्र की विफलताओं की रुदाली कर रहे हैं। इस गहरे अंधकार, नकारात्मक सूचनाओं के संसार में एक राष्ट्रनायक का काम क्या है? सही मायने में एक राष्ट्र के नायक का यही कर्तव्य है कि वह राष्ट्रजीवन में निराशा और अवसाद के बादल न चढ़ने दे। वह दुखी जनों को और संतप्त न करे। कठिनतम जीवन संघर्ष में लगी जनता को प्रेरित कर उन्हें रास्ता दिखाए। देश की विशाल आबादी हमारा संकट है। बावजूद इसके इस प्रश्न पर बोलना खतरे से खाली भी नहीं है। सारे संसाधन पैदा होते ही अगर कम हो जाते हैं तो इसका कारण हमारी विशाल जनसंख्या ही है। शायद इसीलिए मोदी यह कहते नजर आ रहे हैं कि “अर्थ केंद्रित वैश्वीकरण या मनुष्य केंद्रित वैश्वीकरण ?” उनका यह प्रश्न खुद से भी है, देश से भी और नीति-निर्माताओं से भी है। उन देशों से भी है जो तमाम चमकीली प्रगति के बाद भी गहरी निराशा में हैं।  मोदी मानते हैं कि आपदा को अवसर में बदला जा सकता है। लोगों के दुख कम किए जा सकते हैं। उन्होंने भुज के उदाहरण से समझाने की कोशिश भी की है कि कैसे खत्म हुए इलाके फिर सांस लेने लगते हैं, धड़कने लगते हैं।

   प्रधानमंत्री के इस भाषण की सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने ‘आत्मनिर्भर भारत’ शब्द का कई बार इस्तेमाल किया। यह आत्मनिर्भर भारत ही दरअसल अपने पैरों पर खड़ा भारत, स्वावलंबी भारत है। जहां अपने जरूरत की चीजें और उनका निर्माण हम कर पाते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य ‘वन डिस्ट्रिक वन प्रोडक्ट’ जैसे अभियान के माध्यम से इसे संभव भी कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री जो उदार आर्थिक नीतियों के पक्ष में रहे हैं, अगर आज आत्मनिर्भर भारत को एकमात्र मार्ग बता रहे हैं तो इसके विशिष्ट अर्थ हैं। यानि अब वह स्थिति है जिसमें भारत एक ग्लोबल लीडर बनने की आतुरता दिखा रहा है। वे यहीं नहीं रुके उन्होंने यह भी कहा कि “लोकल ने हमें बचाया है, लोकल के लिए वोकल बनिए और यही हमारा जीवन मंत्र होना चाहिए।” 

     करोना के वैश्विक संकट ने भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के सामने जैसे प्रश्न खड़े किए हैं, उनके उत्तर हमेशा सकारात्मक नहीं हो सकते। सरकारों और उसके तंत्र को कोसते आए हम लोग अचानक उसकी श्रेष्ठता और जनपक्षधरता का बखान नहीं कर सकते। यह तंत्र जैसा भी है, बना और बनाया गया है। यह जितना भी उपयोगी या अनुपयोगी है, सच यह है कि वही हमारे काम आ रहा है। बहुनिंदित पुलिस, सरकारी डाक्टर, नर्स, सफाई और स्वच्छता से जुड़ा सरकारी तंत्र ही इस महान संकट में अपनी जान जोखिम में डालकर आपके पास पहुंच रहा है। बावजूद इसके कि हर जगह उनके लिए फूल नहीं बरस रहे। कहीं पत्थर हैं तो कहीं व्यापक असहयोग। आप सोचें की जिस तरह निजीकरण की अंधी आंधी 1991 से चली और यह लगा कि सरकार का काम स्कूल, अस्पताल और सेवा के तमाम करना नहीं है, ये सारे काम तो निजी क्षेत्र में ही गुणवत्ता से संभव हैं । आप कल्पना करें अगर यह बुरे और खराब सेवाएं देने वाले सरकारी अस्पताल भी हमारे पास न होते क्या होता?     

   हम जानते हैं कि कभी भी नायक उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ते। देश की विशाल आबादी जो अपने संकटों के कारण अब महानगरों से पलायन कर रही है। उसकी उम्मीदें टूट रही हैं और वह किसी भी हाल में अपने गांव या घर पहुंचना चाहती है। ऐसे में सरकारों का दायित्व क्या है? राष्ट्रनायकों का दायित्व क्या है? यही कि वे भरोसे को दरकने न दें। उम्मीदों को टूटने न दें। सपनों को मरने न दें। हमें यह मान लेना चाहिए कि देश की इतनी विशाल आबादी के लिए कोई भी तंत्र या व्यवस्था द्वारा बनाए गए इंतजाम नाकाफी ही साबित होंगे। किंतु जहां जैसे संकट खड़े हो रहे हैं, सरकारें और समाज पीड़ित जनों के साथ खड़े होते ही हैं। सरकारी तंत्र की सबसे बड़ी विफलता है कि उसके प्रति विश्वास खत्म हो चुका है। वे कुछ भी करें, अब वह भरोसा हासिल नहीं कर सकते। यह भरोसा धीरे-धीरे तोड़ा गया है। सरकार, मीडिया, समाज और प्रभु वर्ग सबने मिलकर सरकारी संस्थाओं, सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, सरकारी सेवाओं से लोगों का भरोसा डिगाया है। सरकारी फोन से लेकर सरकारी पीडीएस की दुकानों की तरफ देखने की हमारी खास दृष्टि है। आप यह भी देखें कि प्राइवेट विश्वविद्यालय, प्राइवेट फोन कंपनियां, प्राइवेट अस्पताल भी तमाम गलतियां करते हैं पर निशाने पर सरकारी संस्थाएं ही होती हैं। मीडिया के निशाने पर भी सरकारी संस्थाएं ही होती हैं, जैसे निजी क्षेत्र में रामराज्य कायम हो। सरकारों की जड़ता, नीति-नियंताओं की स्वार्थपरता ने हालात और बिगाड़ दिए हैं । अपनी ही संस्थाओं के प्रति सरकारें अनुदार होती गयीं और निजी क्षेत्र पर उनकी कृपा और संवेदना बरसने लगी। किंतु जब संकट आन पड़ा तो वही बहुनिंदित, लापरवाह और कथित तौर पर भ्रष्ट तंत्र ही हमारे काम आया। आज भी नीचे के स्तर पर हमारे सफाई कामगारों, नर्स बहनों से लेकर, सेनिटाइजेशन के काम से जुड़े लोग, पुलिसकर्मियों से लेकर आंगनबाड़ी की बहनों की सेवाओं की ओर देखना चाहिए।

          सही मायनों में मोदी सपनों के सौदागर हैं। वे निराश नहीं होते, निराशा नहीं बांटते। अवसाद की परतें तोड़ते हैं और उजास जगाते हैं। वे इसीलिए अपने इस भाषण में एक नायक की तरह बात करते हैं वे कहते हैं “कर्मठता की पराकाष्ठा और कौशल(क्राफ्ट) की पूंजी से ही भारत आत्मनिर्भर बनेगा।” वे जोड़ते हैं मिट्टी की महक से बनेगा नया भारत। हम देखें तो एक नायक तौर पर मोदी संभावनाओं में ही निवेश कर रहे हैं। वे मुख्यमंत्रियों के साथ सतत संवाद कर रहे हैं। उन्हें नेतृत्व दे रहे हैं। अपनी ओर से विविध वर्गों से संवाद कर रहे हैं। एक लोकतंत्र में संवाद से ही दुनिया बनती और अवसर सृजित होते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि संकट गहरा है, इंतजाम नाकाफी हैं, सेवाएं गुणवत्तापूर्ण नहीं है, रामराज्य अभी भी प्रतीक्षित ही है, ईमानदारी से कर्तव्य निर्वहन करने वालों की संख्या सीमित है। फिर भी हिंदुस्तान का मन मरा नहीं है। अपनी विशाल आबादी, विशाल संकटों के बाद उसका हौसला टूटा नहीं है। उसकी संवेदनाएं मरी नहीं है। हमारे श्रमदेव और श्रमदेवियों की अपार उपेक्षा के बाद भी, हमारे किसानों के लाख संकटों के बाद भी भारत फिर उठ खड़ा होगा और सपनों की ओर दौड़ लगाएगा, भरोसा कीजिए। करोना संकट के बाद का भारत एक नई तरह से सोचेगा, व्यवहार करेगा। साथ ही ज्यादा आत्मनिर्भर और ज्यादा समर्थ होगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्रोफेसर और कुलसचिव हैं)

मोबाइलः 09893598888

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Last modified on Friday, 15 May 2020 22:57

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