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नारी अस्मिता के विमर्श को रेखांकित करती फिल्म "गांजे की कली" : दयानंद अवस्थी Featured

By June 08, 2020 1117 0

यू ट्यूब में विगत माह  रिलीज होने के पश्चात् बढ़ता हुआ विव्हरशिप सिद्ध करता है की सात वर्षों से विभिन्न इलेक्ट्रानिक प्लेटफार्म में रिलीज छत्तीसगढ़ी फिल्म “गांजे की कली” का का नशा अभी नहीं उतरा है ।  और यह छत्तीसगढ़ी सिनेमा के उज्जवल भविष्य की निशानी है। मनोरंजन की इस दौर में समानांतर सिनेमा की न्यून उपलब्धता के स्याह में उम्मीद की किरण बन चमक रही है यह फिल्म।  क्षेत्रीय फ़िल्में जहाँ एक ओर अपनी लागत नहीं निकाल पातीं और लचर कहानी व मसाला की शिकार हो अपना वजूद खो बैठती हों ऐसे समय में साफ़ सुथरी फिल्म ओ टी टी पर लाना एक साहस का कार्य है।  एन एस डी से प्रशिक्षित युवा निर्देशक प्रो. डॉ.योगेन्द्र चौबे का कुशल निर्देशन इस फिल्म में सर्वत्र झलकता है । 

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फिल्मों में बहुधा शीर्षक विषय के संयोजन नहीं अपितु सर्जक के प्रति tribute या श्रद्धांजलि समेटे हुए रहते हैं, इस  फिल्म का शीर्षक “गांजे की कली” भी इसी भाव का प्रतिनिधत्व करता है, इस हेतु कार्यकारी निर्देशक आस्था कपिल चौबे साधुवाद की पात्र हैं जिन्होनें टाइटल को ज्यों का त्यों रख कर कथानक के प्रति न्याय किया है।  पारिवारिक संबंधों, स्त्री अधिकार एवं भावनाओं की कुशल चितेरी प्रसिद्द ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित स्व. अमृता प्रीतम की कहानी के शीर्षक से एक बारगी फिल्म के विषयवस्तु का भान नहीं होता है लेकिन निर्देशक के द्वारा 1971 के भारत के ग्रामीण सामाजिक सोंच को आज भी कमोबेश स्थतप्रज्ञ करना और उस पर फिल्म बनाना यह दर्शाता है की ग्रामीण जीवन में सामाजिक ब्यवस्था पर कितनी सुधार की गुंजाइश है।

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इस फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित करने वाली छत्तीसगढ़ की प्रथम फिल्म का गौरव प्राप्त है । निर्देशक से चर्चा के दौरान यह भी पता चला था की यह फ़िल्म राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के लिए नामांकित भी हो चुकी थी । कई संस्थाओं में इस फ़िल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग भी की गई है।

प्रसिद्ध टीवी सीरियल भारत एक खोज के लेखक “अशोक मिश्र” ने इसकी पटकथा लिखी यह उनका छत्तीसगढ़ी संस्कृति के प्रति लगाव  ही है कि कहीं पर भी कहानी ट्रेक से नहीं उतरती,छत्तीसगढ़ में सार्थक सिनेमा की शुरुवात सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति से होती है फिर आई बासु चटर्जी की फिल्म दुर्गा जिसे अशोक मिश्र जी ने ही लिखा था उनकी शूटिंग छत्तीसगढ़ में हुई थी (छत्तीसगढ़ तब मध्य प्रदेश का भाग हुआ करता था ), योगेन्द्र की फिल्म भी उसी धारा का विस्तार है।  हालांकि मूल कहानी का परिवेश भी छत्तीसगढ़ ही है उसमें भी पटकथा को एक मजबूत आधार मिलता है।

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छत्तीसगढ़ में “चूरी पहराना” विवाह की एक पद्धति है जो यहाँ की अच्छुण सांस्कृतिक विरासत का एक अंग है, इसके अंतर्गत रीती-रिवाजों का सरलीकरण होता है किन्तु इस बंधन में सामाजिक दबाव का पालन बड़ी शिद्दत से होता है यदि नायिका ने उस वर्जना (टैबू) को भरी पंचायत के समक्ष पति के नाम की चूड़ी को फोड़ते हुए धत्ता बता दिया हो तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है स्त्रीमन की पीड़ा कैसी होगी । आंचलिक या क्षेत्रीय सिनेमा की यही खूबसूरती होती है की वे परम्परा बोध, लोक संस्कृति, ग्रामीण जीवन के अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों, वेश-भूषा ,खान –पान , नृत्य गीत ,कला कौशल आदि को एक सूत्र में पिरोने का माद्दा रखती हैं बशर्ते फिल्म के निर्देशन संपादन दृश्यांकन, कासट्यूम, आदि पर गंभीर प्रयास किये गए हों । लोक जीवन की जैसी सरलतम ,नैसर्गिक अनुभुतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण गांजे की कली का मजबूत पार्ट है, इन सब तत्वों को मिलाने से फिल्म में जान आ गयी है।

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अभिनेत्री नेहा सर्राफ ने अमृता प्रीतम की गुल्बत्ती (मूल कहानी में नायिका का यही नाम था ) को अघनिया या चंदैनी के रूप में बेहद आत्मविभोर होकर जिया है । अन्य पात्रों में  दुर्वेश आर्य (सरदार जी), कृष्णकांत तिवारी (रंगीलाल), उपासना वैष्णव (अघनिया की माँ), दीपक तिवारी, धीरज सोनी, पृथा चंद्राकर एवं पूनम तिवारी आदि ने कंम समय में अपनी उपस्थिति देकर उत्कृष्ट  कला का परिचय दिया है,फिल्म का कुशल संपादन राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित असीम सिन्हा ने किया है ,फिल्म की कार्यकारी निर्माता हैं अशोक चंद्राकर व् आस्था कपिल चौबे । फिल्म की शुरुआत से लेकर अन्त तक निर्देशक ने लोक संगीत के माध्यम से छत्तीसगढ़ी आत्मा को जीवित रखा है और यह मनोहर  संगीत दिया है श्री चंद्रभूषण वर्मा ने गायक स्वरों में निर्देशक योगेन्द्र चौबे नें स्वयं अपनी आवाज का तड़का लगा कर संगीत पक्ष को और अधिक श्रवणीय बना दिया है।इस फिल्म में खासतौर पर लोकेशन साउंड तकनीक का अद्भुत प्रयोग हुआ है सारी आवाजें शूटिंग के समय की हैं उन्हें डब नहीं किया गया है । यद्यपि फिल्म में  अघनिया और रंगीलाल के सुहागरात के दिन के आइटम सांग के बिना भी संगीत पक्ष बेहतर है उस नृत्य की कोई विशेष आवश्यकता परिलक्षित नहीं होती है । इस फिल्म की सबसे खास बात यह है कि फिल्म दर्शकों के सामने एक सामाजिक कुरीतियों के प्रति सवाल छोड़ती है। आमतौर पर बनने वाली छत्तीसगढ़ी फिल्मों से यह फिल्म काफी अलग है।

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साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता होती है जिस कालखण्ड समय,परिवेश परिस्थितियों  में साहित्यिक कृति का जन्म होता है वह और उस पर फिल्म बनना ये दोनों काफी अलग-अलग प्लेटफोर्म पर होते हैं किन्तु गुणी फिल्मकार इसमें सामंजस्य बैठाता है और अपनी फिल्म के दर्शकों को उसकी पूर्व साहित्यिक कृति की कल्पना के समक्ष लाकर खड़ा करता है. इस फिल्म में साहित्य व् सिनेमा दोनों विधाओं की दृश्यता दर्शनीय है. हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए फिल्म की भाषा बोधगम्य है, इस छत्तीसगढ़ी फिल्म के सब टाइटल अंग्रेजी के हैं, सरदारजी के द्वारा पंजाबी का बोलना भी उतना कठिन दृश्यांकन नहीं है वरन सब भली भांति समझ में आता है. संवादों में एक ख़ास प्रकार का पॉज है जो संवाद अदायगी की लाक्षणिता भी हो सकती है ।  

पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को भोग्या मानने को लेकर अमृता प्रीतम ने भी अपनी मूल कहानी में अघनिया व उस जैसी अनेक लड़कियों की मनोदशा को ब्यक्त करते हुए लिखा है की ‘समाज की बनाई हुई जाति मेल खा गई पर गुलबत्ती (फिल्म में अघनिया) के सपनों से सपनों की जाति न मिली, और गुलबत्ती रंगीलाल की गुड़गुड़ी (गांजे को सुलगाकर पीने में प्रयुक्त होने वाला चिलम ) गांजे की तरह सुलगने लगी।’ रंगीलाल की इसी  आत्म प्रवंचना को फिल्म में दिखाया गया है तथा अघनिया को इन्हीं बेड़ियों से मुक्त होती हुयी नारी प्रदर्शित किया गया है।

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कथानक में आगे सरदार जी के साथ भाग जाने के पश्चात् जब पंचायत बैठती है तब अघनिया भरी पंचायत में निर्भीकता से अपने पति के साथ जाने से इनकार कर देती है और कहती है- ‘मैं 18 वर्ष की, 47 वर्ष के पुरुष से मेरी शादी कर दी गई पूछती हूँ क्या कोई पुरुष 50 वर्ष की स्त्री से इस प्रकार विवाह कर सकता ?’  इस प्रश्न पर सभी मौन हैं…इस पर सभा में सन्नाटा छा जाता है ।  सचमुच पंचायतें इस प्रकार के निर्णयों पर कैसे बोल सकती हैं, वे निरुत्तर हैं. फिल्म में ग्रामीण पारिवारिक सलाहकार की भूमिका को निभाते हुए पंचायत को बखूबी दिखाया गया है, आज भी पंचायतों में अजीबोगरीब जुर्माने का प्रावधान है ,फिल्म हमारी ब्यवस्था पर चोट करती है और एक बड़ा सैद्धांतिक  प्रश्न चिन्ह भी खड़ा करती है ,कि क्या  पंचायती राज में ऐसा भी हो सकता है ?  यह तो प्योर नारी अस्मिता का विषय है,ऐसे कई प्रश्नों को समेटे हुए यह काल जयी रचना दृश्यांकन के माध्यम से प्रस्तुत की गयी है जिसका दर्शक बड़ी बैचेनी से इंतजार करते हैं ,क्योंकि मसालेदार खाते खाते उबने पर शुद्ध और अच्छा खाना भी सेहत के लिए लाभप्रद होता है ।  

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फिल्म के उत्तरार्ध  में जब अघनिया सरदार जी के चले जाने के बाद मायके में आकर रहने लगती है तो मानो उसने अमृता प्रीतम की कविता “दाग” का प्रतिरूप अपनी भावनाओं में पिरोया हो- जिसमें कवयित्री नें वर्णन किया है –
मोहब्बत की कच्ची दीवार,
लिपी हुई, पुती हुई ,
फिर भी इसके पहलू से ,
रात एक टुकड़ा टूट गिरा,
बिल्कुल जैसे एक सूराख़ हो गया,
दीवार पर दाग़ पड़ गया…
यह दाग़ आज रूँ रूँ करता,
या दाग़ आज होंट बिसूरे..
यह दाग़ आज ज़िद करता है…
यह दाग़ कोई बात न माने.टुकुर टुकुर मुझको देखे,
अपनी माँ का मुँह पहचाने।
टुकुर टुकुर तुझको देखे,अपने बाप की पीठ पहचाने....

वर्तमान के कोरोना काल में फिल्म इंडस्ट्री लगभग पूरी तरह ठप्प पड़ी है, फिल्म वितरक एवं सिनेमाघरों  के मालिक फिल्मों की रिलीज की बाट जोह रहे हैं ट्रेड एनालिस्ट अतुल मोहन ने इस विभीषिका को भयावह बताते हुए  लगभग 200 करोड़ रूपये प्रति माह के घाटे का अनुमान ब्यक्त किया है। इस काल में डिजिटल प्लेटफार्म में ही फ़िल्में व् वेब सीरिज लांच हो रही हैं ऐसे समय पर इस फिल्म का यू ट्यूब में रिलीज होना दर्शकों के लिए एक पुष्ट शाकाहारी ब्यंजन से कम नहीं है. फिल्म का क्लाइमेक्स लघु है फिल्म जिस बिंदु पर समाप्त होती है उस पर दर्शक बोल उठता है अरे ! फिल्म खत्म हो गयी ?..बहरहाल फिल्म के कलात्मक संयोजन व् छत्तीसगढ़ की सौंधी माटी की मंहक़ के अन्तर्निहित होने की वजह से फिल्म दर्शनीय है और सार्थक सिनेमा को जस्टिफाई करती है।

                                                                                      - लेखक मानव वैज्ञानिक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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Last modified on Monday, 08 June 2020 20:48

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