आमनेर, मुस्का और पिपरिया जैसी त्रिवेणी के बीच 'राजा बहादुर' की इस कल्पना को निहारिए। आपका खैरागढ़ किसी प्रयागराज से कम नहीं लगेगा। रियासतकाल की हरेक अधोसंरचना में प्रशासक की दूरदर्शिता और कर्तव्यनिष्ठा आसानी से प्रतिबिंबित होती है। तब राजतंत्र था, लेकिन तंत्र का राज नहीं था! शासक पहले प्रजा की चिंता किया करते थे। बिल्डिंंग केे नीचे दबा नाला घरों में घुस रहा पानी...
आज प्रजातंत्र में जनता परेशान है। प्रशासन तो जैसे मुट्ठीभर लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है। असल मालिक को धमका रहा है और रसूखदारों की चाकरी कर रहा है। वहीं लोकतंत्र के कथित राजा, सड़क के गड्ढों में भविष्य का सिंहासन ढूंढ रहे हैं। इन्हें लगता है कि ऐसा करने से जनता साढ़े चार साल की चुप्पी भूल जाएगी।
भूल भी जाती, अगर यही संवेदनशीलता जैन मंदिर के सामने भी दिखाई जाती। ड्रामा ही सही, कम से कम नाले पर हुआ अतिक्रमण देखने के लिए ही पहुंच जाते। ये भी नहीं हुआ! सियासत की धूप में बाल सफेद करने वालों ने सबसे पहले कन्नी काटी!? वे भी आगे नहीं आए, जिन्होंने नाला पार कर कभी बागीचे से आम चुराए।
समझौते की राजनीति ने तो उस शत-प्रतिशत विकलांग की पीड़ा भी भुला दी, जो बारिश का पानी घर में घुसने के बाद अपने परिवार के साथ डर डरकर रात गुजारता है। हद तो तब हो जाती है जब सत्ता पक्ष का 'वजनदार' नेता ये कहे- 'मैं विरोध की राजनीति नहीं करता!' और धरम के ठेकेदार नालियों का गंदा पानी मंदिर में घुसने पर भी उफ तक न करें।
कमाल है ना? जिस तू-तू, मैं-मैं में लोकतंत्र की खूबसूरती है, खैरागढ़ की सियासत उसी से परहेज करती है। जिम्मेदार राजनीतिज्ञों ने ये तक नहीं पूछा कि रियासतकाल से जो नाला अस्तित्व में था, वह रिकॉर्ड से अचानक गायब कैसे हो गया? चलो ये ही पूछ लेते कि सिविल लाइन, अटल उद्यान, राजफेमिली आदि की नालियां विश्वविद्यालय परिसर में स्थित मुख्य नाले से क्यों जोड़ी गईं, जब रिकॉर्ड में जैन मंदिर के बाजू वाला नाला था ही नहीं? पानी की निकासी के लिए नगर पालिका के काबिल इंजीनियरों ने जो रास्ता तय किया था वह कहां है?
जनता ने आपको चुप रहने के लिए नहीं सवाल पूछने के लिए चुना है। आप नहीं पूछ रहे हैं इसीलिए नियमों से खिलवाड़ हो रहा है। दिमाग पर जरा जोर डालिए, जिन्होंने तकरीबन 13 साल राजस्व विभाग की जिम्मेदारी संभाली हो और जो कागज में लिखे हरेक पैराग्राफ को अल्प विराम, पूर्ण विराम सहित ज्यों का त्यों बोलने का हुनर रखते हों, उनकी याददाश्त को कैसे कोई चुनौती दे सकता है? साहब ने खुद भू-राजस्व संहिता के अधिनियमों का ध्यान रखते हुए विश्वविद्यालय परिसर के भीतर नाले के स्वरूप को जस का तस रखा है। विश्वविद्यालय ने जिसे संजोया, परिसर के बाहर गायब है वही नाला...
वह अच्छे से जानते थे कि बारिश का पानी इसी नाले के जरिए नदी में जाकर मिलता है। टिकरापारा ने 2005 की प्राकृतिक आपदा झेली है। जब लोगों के घर-बार डूब गए तब संवेदनशील हाथ मदद के लिए बढ़े। मानवता को नहीं मरने दिया। इस त्रासदी के बाद कई मकानों की दीवारें नई बनीं। कुछ घरों के कवेलू कांक्रीट की छत में तब्दील हुए। यानी नई संरचनाओं के साथ जिंदगी ने नया आकार लेना शुरू किया। परंतु किसी ने नदी-नाले पर दोष नहीं मढ़ा।
बताते हैं कि ठीक 6-7 साल बाद विश्वविद्यालय परिसर के बाहर कथित धन वर्षा हुई। एक और बाढ़ आई, नोटों की! इसमें कितने ही जिम्मेदारों के जमीर डूब गए। रसूख के तूफान ने रियासतकालीन व्यवस्था की जड़ें हिलाकर रख दी। मानवता तार-तार हो गई। संवेदनाओं ने घुंट घुंटकर दम तोड़ दिया। सियासत ने घुटने टेक दिए और नाले का एक बड़ा हिस्सा जमींदोज हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस त्रासदी के बाद ही सारी कूट रचना हुई!? राजस्व रिकॉर्ड से नाले का गायब होना छोटा-मोटा मामला तो हो नहीं सकता।
आपको बता दूं, जब से नाले की गुमशुदगी सुर्खियों में आई है, 'सेठजी' के सरकारी नौकरों के चेहरे से नूर गायब है। उन्हें जवाब नहीं सूझ रहा। सारे सवाल 'बेचारे बेकसूर' तक पहुंचा रहे हैं, जबकि गुम हुए नाले के बड़े हिस्से को ढूंढने का काम राजस्व अमले को करना है। अगर नाले का स्वरूप बदला है तो जिम्मेदारी तय करनी है। नगर पालिका के तकनीकी विशेषज्ञ भी सांसत में है। उनकी घबराहट बता रही है कि वह इसे परिषद की बैठक का एजेंडा तो बिल्कुल नहीं मान रहे। मानना भी नहीं चाहिए। वह भी समझ रहे हैं कि मामला बेहद गंभीर है।
'नेता जी'! अफसर तो नियम देखकर और तेवर भांपकर पाला बदल लेंगे, लेकिन आप अपने किरदार में कब आएंगे? कहीं ऐसा तो नहीं, विश्वविद्यालय परिसर के बाहर वाली बाढ़ में आपका भी सबकुछ डूब गया हो! नहीं, तो कभी 'प्रयागराज' के पक्ष में बोलकर देखिए। 'राजा बहादुर' की आत्मा तृप्त हो जाएगी। अपने व्यक्तित्व में अलग ही निखार महसूस करेंगे। आपके मतदाता भी सीना ठोक कर कह सकेंगे, 'हमने बोलने वाला, सवाल पूछने वाला और जनता की खातिर लड़ने वाला नेता चुना है। कल उम्मीद की टोंटी थी, आज टोटा है...
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