आपने भी सुना ही होगा!!! नहीं सुना है, तो सुनिए।
खैरागढ़ के सियासी गलियारे में 'घोड़े' हल्ला मचा रहे हैं कि उन्होंने 'बादशाह' को शतरंज की चालें सिखाई!
है ना कमाल की बात! वह तो यह भी कहने से बाज नहीं आ रहे कि उनकी हिनहिनाहट से ही 'बादशाह' की नींद टूटी!
यह सुनकर प्यादे अवाक हैं! कुछ बोल नहीं पा रहे। उनकी नज़र घोड़े की चाल पर है। कहते हैं- 'चतुर है, चालक है। चलेगा तो ढाई घर ही, लेकिन चने का ढेर देख कब और किधर छलांग लगा दे यह नहीं बता सकते!'
वैसे भी, खैरागढ़ के सियासत की फितरत निराली है। वफादारी के सामने सिद्धांत पानी भरते हैं। पार्टी का स्थान दूसरे नंबर पर ही आता है। इसलिए राजनीतिक बिसात पर कब, कौन सा मोहरा किसकी तरफ से खेलेगा, पहचान पाना ज़रा मुश्किल है। परिसीमन को ही ले लीजिए। एक ही पार्टी के नेता अलग-अलग राग अलाप रहे हैं।
पहला राजनीतिक विरोध दर्ज कराया भाजपा ने। कहा- उनके नेताओं के वर्चस्व वाले वार्डों को टारगेट किया जा रहा है। इसके बाद नगर सरकार की तरफ से सभापति ने मोर्चा संभाला। महल के सिपहसालार ने 'सरदार' पर निशाना साधा। भाजपा के कार्यकाल को कटघरे में खड़ा किया और परिसीमन को विकास की जरूरत बताई।
सभापति पर पलटवार किया काफिले के सिपाही ने। उधार की तरकश के तीर धड़ल्ले से छोड़े। उनकी सक्रियता को छबि बचाने की जुगत बताई। फिर सियासी खेल का भेद खोलने वाला सवाल दागा। पूछा- अब बोल रहे हो, तब क्यों चुप थे?! इस एक प्रश्न ने बरसों की गुत्थी मिनटों में सुलझा दी। साबित हो गया कि नगर सरकार चाहे कैसी भी रही हो, परिषद में विपक्ष तब भी चुप था और आज भी है।
इधर सरकार के खेमे में उथल-पुथल मची हुई है। 'शेडो विधायक' के रणनीतिकार ने चुप्पी तोड़ी और परिसीमन को अनुचित ठहरा दिया। उस पार्टी के साथ खड़े दिखे जहां अपनी राजनीतिक पैदाइश बताते हैं। दावा-आपत्ति के आखिरी दिन कांग्रेस का दूसरा महत्वपूर्ण धड़ा पक्ष में उतरा। एसडीएम को पत्र लिखकर सारी आपत्तियों को निरर्थक बताया और प्रस्ताव को यथावत रखने की मांग कर डाली।
चुनाव का मामला है भई, लड़ना पड़ेगा! कुर्सी तो चाहिए ही, कमीशन की खातिर ही सही! जनहित की लड़ाई तो फिर भी वीवीआईपी के भरोसे लड़ लेंगे। सोच रहे होंगे, 'जल आवर्धन का मामला विधानसभा में गूंजेगा तो पालिका परिषद की खामोशी दब जाएगी।'
मुगालते में मत रहिएगा। 'डॉक्टर' की सर्जरी अपनी जगह है और बीमारी के प्राथमिक उपचार में बरती गई लापरवाही अपनी जगह! सवाल तो उठेंगे ही, जवाब भी देना पड़ेगा। जनता पूछेगी, 'बाहर शोर मचाया, भीतर मौन साधे बैठे रहे! राज क्या है?' बचेंगे तो जटिलता बढ़ेगी। गोलमोल जवाब दिया तो उलझते चले जाएंगे। मिलीभगत का खेल उजागर हो चुका है। गलती स्वीकारने में ही भलाई है।
नेता जी! माना भेड़ मानते हो, पर गधा न समझो। चने का भाव आम जनता जानती है। खास चना खाने वाले घोड़ों की सीरत भी पहचानती है।