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खैरागढ़ की सियासत: नेता जी! कल उम्मीद की टोंटी थी, आज टोटा है! ✍️प्राकृत शरण सिंह Featured

बात है 1935 की। ब्रिटिश काल की। तब राजतंत्र था, जब पॉवर हाउस की नींव रखी गई। उसी गंजीपारा में जिसका अस्तित्व 'पर' कतरन (परिसीमन) के चलते खतरे में है। रियासत ने जहां विकास की नींव रखी, सियासत ने उसे विनाश के द्वार तक पहुंचा दिया।

तब राजनीति के केंद्र में जनहित था, इसलिए शुद्ध पानी और बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को प्राथमिकता मिली। आज भी बुजुर्गों की जुबान पर किस्से आम हैं। कहते हैं दुर्ग-राजनांदगांव जैसे शहरों के लोग टोंटी और उससे गिरता पानी देखने खैरागढ़ आया करते थे। पार्षद ने पूछा- विक्रांत के कार्यकाल में क्यों चुप रहे मनराखन...

तारों पर दौड़ती बिजली और खंभों पर लटकते लट्टू की रोशनी की कहानी कौतूहल का विषय हुआ करती थी। उसी लट्टू की रोशनी में शिक्षित होकर शिक्षक बनने वाली जमात अभी भी जीवित है। कभी पास बैठकर ध्यान से सुनना उन्हें, सारी अकड़ धरी रह जाएगी।

दूरदर्शिता व संवेदनशीलता के मायने समझ आएंगे, जो इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय और ब्रिटिशकालीन सिविल अस्पताल जैसे अद्वितीय उदाहरणों को देखने के बावजूद आपकी विलक्षण बुद्धि से परे हैं। इनका क्रम भी पानी और बिजली के बाद रखा गया। इसके बाद शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ बढ़े। पढ़िए इलेक्शन के साइड इफ़ेक्ट...

इसी से आत्म अवलोकन कीजिए। स्वार्थ की सियासत ने रियासत के खैरागढ़ को आखिर दिया ही क्या है? कुछ नहीं! मूलभूत सुविधाओं की नींव उन्होंने रखी। उच्च शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य का पैमाना भी उन्होंने ही तय किया। 'आपने' तो इन मिसालों को ही अनदेखा कर दिया। उनकी कल्पना के करीब भी नहीं पहुंच पाए।

सोचिए! आज 85 साल बाद की ‘सियासी भूख’ ने शासकों के सपनों को चकनाचूर कर दिया। इस भयावह 'भूख' ने आवाम की आस गटक ली। प्यास जैसी विकराल समस्या को बौना बना दिया। 'नेतृत्व' ने राजतंत्र की नींव को निखारने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। उसका अनुसरण करने की बजाय जनता को भेड़ माना और उसे हांकने का हुनर सीखा।

इसीलिए सियासत की नींव को ही तहस-नहस कर डाला। रियासतकालीन पॉवर हाउस 2010 में बंद हुआ। लोहे की टंकी पूरी तरह कंडम हो गई। एनीकट का संधारण भगवान भरोसे छोड़ दिया गया, लेकिन इसका विकल्प तैयार नहीं कर पाए। आंकड़े कहते हैं, नगर के 20 वार्डों में रहने वाली तकरीबन 25 हजार की आबादी को हर रोज 33.75 लाख लीटर पानी चाहिए। पालिका 16.90 लाख लीटर के आसपास पूर्ति ही कर रही है।

जल संकट की गंभीरता सियासतदारों के कितने पल्ले पड़ी, यह धनेली से पूछिए। टंकी बने दो साल हो गए, किन्तु पानी आज तक नहीं भरा गया। जाहिर है वहां के 152 घरों तक पानी की सप्लाई भी नहीं हुई होगी। जब पानी नहीं है तो ओडीएफ का तमगा भी बेकार ही समझो! हां, टंकी की कागजी सफाई पूरी ईमानदारी से हो रही है। पार्षद खुद इसकी गवाही देंगे, भले ही राशि निकालने के लिए संतुष्टि प्रमाण पत्र पर उनके दस्तखत असली हों!

'नेतृत्व' ने प्रयास नहीं किया यह कहना बेमानी होगी। परंतु हर कोशिश ‘सियासी भूख’ के सामने पानी भरती नजर आई, यह कहने में कोई शर्म नहीं! लालपुर इसका गवाह है। उसकी प्यास बुझाने के लिए खोदा गया बोर मिट्टी धंसने से बंद हो गया। ऐसे ही 14वें वित्त के फंड से 16 बोर स्वीकृत हुए थे। पता चला ठेकेदार ने गड्ढों से गहराई और केसिंग की लंबाई चुराकर जमकर पैसे बनाए। भ्रष्टाचार की बू आते ही 'कागजी घोड़े' खूब दौड़े। फिर चना खाकर बैठ गए। 

पीएचई के कुशल इंजीनियरों ने लाखों खर्च कर प्रोजेक्ट बनाया। काम भी उसके अनुरूप हुआ, इसके बावजूद तकनीकी खामी बताकर सयंत्र शुरू ही नहीं किया गया। उसका 'मख़बरा' आज भी पावर हाउस से कुछ दूरी पर जस का तस खड़ा है। मजाल किसी ने जिम्मेदारों से एक भी सवाल पूछा हो। आप पूछो तो बगलें झांकने लग जाएंगे। पता नहीं क्यों? शायद भूख मिट गई होगी!?

‘सियासी भूख’ का ताजा उदाहरण है, 32 करोड़ की जल आवर्धन योजना। ‘सरकार’ व ‘असरकार’ दोनों ही गड़बड़ी से वाकिफ थे। खूब हल्ला मचाया। सुर्खियां बंटोरी। 'घोड़ों' की फितरत से वाकिफ अफसर टस से मस नहीं हुए। फिर भी तेवर देखकर लगा था कि इस बार चने का जादू नहीं चलेगा। परिषद की बैठक में सारे नैन मटक्का कर जनहित के सबसे बड़े मुद्दे पर खामोश बैठ गए।

सारा खेल ‘सियासी भूख’ का था, घोड़े हिनहिना कर चने मांग रहे थे। सालभर पहले की घटना याद कीजिए। पक्ष-विपक्ष ने 15 प्रतिशत कमीशन पर फिक्सिंग की थी। दूसरे दिन ठेकेदारों ने 11 फीसदी देना ही तय किया। इसमें तीन प्रतिशत अध्यक्ष और बाकी पार्षदों का हिस्सा था। वसूली की जिम्मेदारी दो विश्वासपात्र कर्मचारियों को दी गई थी। हैरानी नहीं होगी आपको, गर पता चले कि जल कर की राशि वसूल कर हजम करने का भी चलन पालिका में काफी पुराना है! ऑडिट रिपोर्ट में इसका खुलासा हो चुका है। परिषद में जल आवर्धन योजना को लेकर नहीं हुए सवाल...

नेता जी! रियासत की सियासत से तुलना न ही करें तो बेहतर होगा। पिछड़े ही नज़र आएंगे। तब खैरागढ़ के पास उम्मीद की टोंटी थी, आज टोटा है। हालही में आए बयानों ने सारे राज खोल दिए हैं। लोकतंत्र का असल मालिक जानता है कि कल की चुप्पी और आज की खामोशी में नया कुछ भी नहीं!

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Last modified on Thursday, 20 August 2020 09:25

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