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किसान ने शिकारी से बचने के लिए तोते को चार सूत्र वाक्य सिखाए थे। तोते ने चारों रटे और जंगल जाकर साथियों को रटाया भी। लेकिन मौके पर अमल नहीं कर पाए। शिकारी आया। जाल फैलाया। दाने का लोभ दिखाया। फंसाकर ले गया। तोते फड़फड़ाते हुए बस वही सूत्र वाक्य दोहराते रह गए...
"शिकारी आता है… जाल फैलाता है… दाने का लोभ दिखाता है… जाल में फंसना नहीं चाहिए!"
पढ़कर कुछ याद आया? ‘लालच बुरी बला है’ का सबक इसी कहानी से सीखा था हमने।
अब इन सूत्रों को पकड़कर रखिए, काम आएंगे। खैरागढ़ में नगर पालिका का चुनाव जो है! बिसात बिछ चुकी है। आरक्षण का गणित बिठा लिया गया है। उपलब्धियां गिनाने के लिए चारण ढील दिए गए हैं। ये आपके कानों तक पहुंचकर आकाओं का गुणगान करेंगे। आने वाले दो-तीन महीने केवल आपकी ही बातें होंगी। बाजार में ठिये बनाए जाएंगे। यहीं फिजूल के मुद्दे गरमाएंगे! करीबी होने के स्वांग रचे जाएंगे।
उनके लिए बस यही राजनीति है, लेकिन इस बार दाल नहीं गलने वाली। यकीन ना हो तो फतेह मैदान के सामने बन रहे 'बुलंद दरवाजे' से पूछ लो! हां-हां वही, जिसके गुम्बद को कंडे के सहारे आकार दिया गया है और जो पांच साल बाद भी अधूरा है। वह गवाह है चाय की चुस्कियों के बीच हुई इस चर्चा का।
'चुनाव लड़ लूं..?', लड़कपन ने दीवार कुरेदते हुए बुदबुदाया। मानो सियासत में सेंध लगाने की तैयारी कर रहा हो।
'लड़ ले..!', चाय सुड़कने की आवाज के साथ अधेड़ का जवाब आया। जैसे कोहरे की धुंध में सियासी बातचीत ने गरमाहट का एहसास कराया हो।
'पैसे लगेंगे!!!', लड़कपन ने जमीन से पत्थर उठाकर निशाना साधा, लगा कि लक्ष्य निर्धारित है।
'मैं लगाऊंगा! तू उसकी चिंता बिल्कुल मत कर। बस इसी तरह निशाने लगाना', अधेड़ की नज़र उस पत्थर पर थी जो सीधे गुम्बद से जा टकराया। सुबह की ठंड में होंठ कांपे जरूर, परंतु जुबान नहीं लड़खड़ाई।
आम आदमी की इस खास चर्चा पर गौर करिए। नगर पालिका का चुनाव कठपुतलियों के भरोसे लड़ा गया तो परिणाम अप्रत्याशित आएंगे। शातिर सियासत को नए चेहरों की चुनौती मिल सकती है। फिर इन्हें साधने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा। साम, दाम, दंड, भेद के नुस्खे आजमाने पड़ेंगे। इसके बावजूद 'बुलंद दरवाजे' के समान खड़े मजबूत प्रश्नों के उत्तर न सरकार दे पाएगी और न असरकार!
पार्टियों की खेमेबाजी का असर भी चुनाव पर निश्चित रूप से पड़ेगा। कांग्रेस हो या भाजपा, टिकट बंटवारे में गुटबाजी हावी रहेगी। कांग्रेस में बुद्धिजीवी ब्राह्मण हमेशा की तरह प्रभाव दिखाने का प्रयास करेंगे। सेठजी की अपनी पैंतरेबाजी चलेगी। संगठन में इसका नमूना वे पहले ही दिखा चुके हैं। वजनदार वरिष्ठ का पूरा दारोमदार अपने खोटे सिक्के को सियासत के बाजार में चलाने पर होगा/है।
भाजपा में भी रस्साकसी जोरों पर होगी/है। सरदार कतई नहीं चाहेंगे/चाहते कि कबीले से बाहर का कोई व्यक्ति नगर सरकार की बागडोर संभाले। वह माहिर हुनरमंदों पर दांव खेलेंगे। हालांकि पार्टी में कबीले के ही काबिलों का एक धड़ा पंडित जी के साथ खड़ा है। इनमें से भी मजबूत दावेदार उभरकर सामने आ सकते हैं।
प्रवास के दौरान पंडित जी ने नगर की सियासत के अनुभवी ठठेरे की खैरियत क्या पूछी, राजनीतिक बयार की दिशा बदल गई। इतना ही कहा था, 'तोर से नजदीकी तो बढ़ाय जा सकथे ना, अब ?' कोरोनाकाल में तबियत बिगड़ी थी तो हाल जानना चाहा था, पर सुनने वालों को लहजा व्यंग्यात्मक लगा। दूसरी तरफ सांसद प्रतिनिधि की सक्रियता जबरदस्त दखल की ओर इशारा कर रही है।
इस पूरे गुणा-भाग से अलग राजा साहब के भरोसेमंद अपना किरदार निभाएंगे। जाहिर है उनकी अपनी रणनीति बनेगी। जीत-हार अपनी जगह है, लेकिन उनकी बनाई कहानी से रोमांच बढ़ेगा। रोज नए समीकरण बनेंगे। नित नई समीक्षा सुनने को मिलेगी। देखना सिर्फ ये है कि कहानी में ट्विस्ट किस वार्ड से आएगा।
बहरहाल, वार्डों के मुद्दे लेकर नेता मैदान में आ चुके हैं। टिकरापारा वासियों ने पुल बनाने आंदोलन शुरू किया, तो दोनों ही पार्टी के नेताओं ने हस्ताक्षर किए। यानी मंशा उनकी भी है कि पुल बने। इस पर सवाल सिर्फ ये कि आखिर वह तीसरी शक्ति कौन सी है, जिसने 20 सालों तक उस पुल को बनने नहीं दिया, जो लगभग तीन हज़ार की आबादी को नगर से जोड़ता है। विचार करना जरूरी है।
अब ऊपर लिखे उन सूत्र वाक्यों का भविष्यकाल व बहुवचन में रूपांतरण कर पढ़िए… शिकारी आएंगे… जाल फैलाएंगे… दाने का लोभ दिखाएंगे…!
तोते नहीं हैं आप! फिर भी आसान शिकार हैं। शिकारी फिर तैयार हैं। मौका चूके तो जाल में फंस जाओगे। पांच साल फिर फड़फड़ाओगे।