सच मानिए, दाग उभर आए हैं। शायद, वर्दी वालों को न दिखाई दें, किन्तु आम जनता की नजरों से यह ओझल नहीं।
डबडबाई आंख से देखने वालों को धब्बों का आकार बड़ा दिखाई दे रहा है। चाहो तो उस पिता से पूछ लो जिसने 70 की उम्र में 32 बरस का बेटा खोया है। व्यवहार निभाने की झोलाछाप प्रवृत्ति अपनाने वाले असमंजस में रहे। उनकी निष्ठा लापरवाहों के प्रति ज्यादा रही। वे गलत इलाज को कानूनन करेक्ट करने वालों में थेे।
भला हो तुमड़ीबोड़ के चौकी प्रभारी का, जिसने झोलाछाप इलाज के अपराध की सही व्याख्या कर कानून की लाज रख ली। मेडिकल ग्राउंड पर आरोपी डॉक्टर के विरुद्ध गैरजमानती धारा का प्रयोग किया, वरना पता ही नहीं चल पाता कि धारा 304 में ‘ए’ प्रत्यय जोड़कर भी आरोपियों को राहत दी जा सकती है।
खैरागढ़ के वर्दीधारी माहिर खिलाड़ी निकले। उन्होंने तो युवक की मौत के छठवें दिन से छानबीन शुरू की थी। सवाल पूछने की जरूरत नहीं कि छह दिन क्या किया? संभव है, क्लिनिक की साफ-सफाई में व्यस्त रहे हों। एप्रिन के सफेद रंग का ख्याल रखते हुए सरकारी डॉक्टरों को क्लिनिक से दूर रखा गया। चिंता थी कि कहीं ये भी दागदार न हो जाएं। पहले दिन बिना दिखाए क्लिनिक सील किया और आख़िरी दिन उनकी गैर मौजूदगी में उसे खोला। बस, तभी से खाकी पर छींटे दिखने लगे थे। तुमड़ीबोड़ का मामला सामने आने के बाद यह धब्बों में तब्दील हुए और एकदम से उभरे।
संभवत: जिले का यह पहला मामला है, जिसमें एक चौकी की कार्रवाई ने दूसरे थाने में हुए धाराओं के खेल की कलई खोल दी। फिर मामलों की ऐसी झड़ी लगी कि पूछो मत! शनिवार को आम आदमी पार्टी ने सट्टे की रियासत पर सियासी हमला बोलकर मिलीभगत को साबित कर दिया। नगर पालिका चुनाव में प्रत्याशी उतारने की इच्छुक आप ने सट्टे के कारोबार को पहला मुद्दा बनाया।
आम आदमी के बीच इस धंधे को लेकर खासी प्रतिक्रिया देखी होगी, तब जाकर 'आप' ने यह मुद्दा चुना। हो सकता है इस ज्ञापन के बाद दो-चार कमजोर कड़ियां धरी जाएं, लेकिन कानून के हाथों को आकाओं के गिरेहबान की पहचान है। चाहे जितने लंबे हों, वहां तक नहीं पहुंचने वाले। इससे पहले ‘राजा साहब’ की चिट्ठी से महकमे में हड़कंप मची थी। इसी चिट्ठी ने वर्दी की सांठगांठ उजागर की थी।
गंडई क्षेत्र में शराब के अवैध कारोबार से नेताओं की हिस्सेदारी का भी खुलासा किया था। चिट्ठी ने ही तो बताया था कि गंडई थाने का खजाना भरता कैसे है? कप्तान ने सारे आरोप नकारे जरूर, लेकिन कार्रवाई से इनकार नहीं कर पाए। इसके बावजूद पुलिस ने सबक नहीं लिया। अभी भी रसूखदार जुआड़ियों को पकड़ते ही वर्दी के भीतर का गणितज्ञ जाग उठता है। जुए की रकम जब्त होते ही जेबों की गिनती कर ली जाती है।
अंक गणित के हुनरमंद जोड़-घटाने के हिसाब में जुट जाते हैं। इस बीच दो-चार हज़ार ऊपर-नीचे हुए तो किसे पता चलेगा। सितारेदार ठहरे रेखा गणित के प्रोफेसर। उन्होंने रियासत के ‘मुरलीधर’ तक पहले ही सीधी लाइन खींच रखी है। कारोबार का विस्तार आसपास के थाने और चौकियों तक है। वे भी इसके प्रभाव में हैं।
पिछले दिनों नगर के एक रसूखदार व्यापारी से चोरी का गहना जब्त किया गया, लेकिन वहां से जब्ती नहीं दिखाई गई। सवाल पूछने पर जवाबदार की जुबान लड़खड़ाई, तो सारे भेद खुल गए। पुलिस की पूछताछ में आरोपी ऐसे ही तो पकड़े जाते हैं! सेठ जी ने पहले कहा, 'वजन कराने आए थे', फिर बोले- 'असली-नकली की पहचान कराई'। ये नहीं बताया कि छोटी लालच गल्ले पर कितनी भारी पड़ी! खैर, यह तो उदाहरण मात्र है। गिनने बैठें तो बीसियों मिलेंगे।
दाग-धब्बों से तंग आकर अंग्रेजों ने 174 साल पहले वर्दी का रंग बदला था। चाय की पत्ती का इस्तेमाल कर डाई बनाई थी और वर्दी के रंग को सफेद से खाकी में तब्दील किया था। तब 1847 में इसे अपनाने वाले पहले गोरे अफसर सर हैरी लम्सडेन को भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि बेईमानी के धब्बे इसे भी फीका कर देंगे!
अब वर्दी का रंग बदलना काफी मुश्किल है। हां, ईमानदार कार्रवाई के साबुन-सोडे से दाग-धब्बों के रंग को हल्का जरूर किया जा सकता है। वर्दी में जेबों की संख्या घटाई जा सकती है। थानों में चल रही दुकानदारी पर अंकुश लगाया जा सकता है।
कप्तान! एक बार कानून के डंडे से वर्दी की धूल भी झाड़िये। दो-चार छीटें आप पर उड़ें, तो भी परवाह नहीं! तब लोग कहेंगे- "कप्तान की वर्दी पर दाग अच्छे हैं।"