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खैरागढ़िया सियासत और गड्‌ढे की राजनीति ✍️प्राकृत शरण सिंह

वह शक कर रहा होगा अपने हुनर पर। कह रहा होगा कि ईश्वर ने नाइंसाफी की, उसके जैसा दूसरा जीव बनाकर। नेता तो गिरगिट की तरह पल-पल रंग बदलते हैं।

पकी दाढ़ी वाला ‘अनुभव’ अपनी धुन में बुदबुदाता जा रहा है। कुछ देर तेज चलता, फिर ठिठक सा जाता। कभी तो चाल बहुत धीमी पड़ जाती। मानो गहरे चिंतन में हो।

‘अरे ओ दादा… जरा बचके!’ अचानक आई जोर की आवाज से अनुभव के कदम रुक गए। इधर-उधर देखा। कोई नहीं दिखा, तो अपनी लय पकड़ ली।

‘क्या दादा… देखकर भी अनदेखा कर रहे हो, नेता हो क्या?'

यह सुनकर अनुभव के कान खड़े हो गए। दोबारा मुंडी घुमाई, लेकिन सिवाय गड्‌ढे के कुछ नजर ही नहीं आया।

‘अब टुकुर टुकुर देखना बंद करो… और पहचानो। आजकल हम ही तो छाए हुए हैं, खबरों में।’ आवाज गड्ढे से ही आ रही है, उसके अंदाज में खास होने का एहसास झलक रहा है।

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‘हां भई, गड्ढे के इर्दगिर्द ही तो चल रही है राजनीति। बाकी बचा ही क्या है?', अनुभव ने सार निकाला।

‘सोचता हूं…क्यों न चुनाव लड़ लूं?', गड्ढे ने मंशा जाहिर की।

‘तू… तू कैसे चुनाव लड़ सकता है? तू तो निर्जीव है। और चुनाव लड़ने के लिए सजीव होना जरूरी है।', अनुभव ने समझाया।

‘तभी तो..! जिंदा लोग नेताओं के पसंदीदा नहीं। इसलिए मेरी संभावना प्रबल है।'

‘खुलकर बोले तो समझूं!', घुटने के बल बैठते हुए अनुभव बोला।

‘क्यों??? पहले जितने लड़े, सब जिंदा थे क्या?', गड्‌ढे ने चुभते सवाल दागे।

‘क्यों… कौन मर गया है?', अनुभव झुंझलाकर पूछा।

‘क्या सांस लेने वाले गलत को गलत कहने का माद्दा रखते हैं? नहीं… तो जिंदा कैसे हुए?’

‘तू खुद के भीतर झांक। वो कहते हैं ना… जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, स्वयं एक दिन उसी में गिरता है। न जाने ऐसे कितने अपनों को तू लील गया होगा।'

‘अब इतना भी गिरा हुआ नहीं हूं, चमचों की तरह। काबिलियत उपाध्यक्ष बनने की है। और नहीं, तो नेता प्रतिपक्ष बन ही सकता हूं। दो-चार पार्षद खरीदकर अध्यक्ष भी बन जाऊंगा।', गड्ढे ने शातिर सियासत पर तीर चलाए, अनुभव भौचक रह गया।

‘गूंगे को कुर्सी नहीं मिलती।', यह कहकर अनुभव ने नेतृत्वकर्ता की योग्यता बताई।

‘लगता है बाल सारे धूप में सफेद हुए हैं। सियासत के पन्ने पलटकर देखो। गूंगे-बहरों की ही चांदी रही है। या तो आका बैठते हैं या गुलाम को बिठाते हैं, ताकि धाक जमी रहे। उड़ने वालों के पर कतरने का रिवाज है, यहां। पालिका के पीछे फिल्माई गई फिल्म, इसका बड़ा उदाहरण है।', जोर का झटका धीरे से दिया और आगे बोला…

‘लिखने और बोलने वाले तो भाड़े पर मिल जाते हैं। जमीर बेचकर जीने वालों की कमी नहीं, कोई सस्ता सा खरीद लूंगा। पिछले 15-20 सालों में इतना तो सीख ही चुका हूं। सुबह से चक्कर लगाओ। बड़ी-बड़ी बातें करो, बस! पांच साल यूं ही निकल जाते हैं।'

 ‘बदतमीज..!', गुस्सा धीरे से निकला, लेकिन गड्‌ढे ने सुन लिया।

‘यही बदतमीजियां मुझे चर्चा में लाएंगी। खैरागढ़ के चौक-चौराहों पर खड़े लोग मेरी ही बातें करेंगे।', उसने अनुभवी बुड्‌ढे के मजे लिए।'

‘मुगालते में मत रहना। सरदार भांप चुके हैं। पंडित जी को भी अंदाजा है। बड़े-बड़ांे को पाटने की तैयारी कर रखी होगी, महाराज ने!’, अनुभव के मुंह से राज का पिटारा खुला।

‘तब तो कबीले में भी उथल-पुथल जरूर मची होगी।'

न केवल कबीला, बल्कि पूरा जिला गुटों में बंटा दिख रहा है। वैसे तो आंसू पोछने डॉक्टर की पूरी टीम पहुंची। घुमका के किसान परिवार को ढांढस बंधाया। चिट्‌ठी लिखकर लाखों के मलहम लगाए, लेकिन पंडित जी ने किसान बेटे को गले लगाकर अपनी जगह बना ली। उसकी सिसकियां सीने में बंटोर लाए।’, अनुभव ने तजुर्बे की बात कही।

‘बस… इतना ही! क्या इससे बाकी किसानों को राहत मिल गई? सोसायटियों में तौलाई के नाम पर वसूली बंद हो गई? नहीं ना!!! मानो मेरी बात, गड्‌ढों (कमियों) को पाटना इतना आसान नहीं!’, बोलते हुए गड्‌ढा थोड़ा चौड़ा हो गया, जैसे सीना फुला रहा हो।

‘…तो तू नहीं मानेगा! बुलाऊं उसे?’, पास से गुजर रहे डंडा शरण की तरफ उंगली कर अनुभव बोला।

‘किस मनहूस का नाम ले लिया। हलक से निवाला नहीं उतरेगा। यह तो गड्‌ढों का जानी दुश्मन है। खासताैर पर सियासी गड्‌ढों का। दो-चार के टिकट ये ही कटवाएगा।’, इतना कहकर गड्‌ढा मौन हो गया। उससे आवाज आनी बंद हो गई।

अनुभव ने झुक-झुककर, झांक-झांककर आवाज दी, परंतु जवाब नहीं मिला। तब तक डंडा शरण भी करीब पहुंच चुका था।

‘किसे पुकार रहे हो काका, यहां कैसे बैठो हो? क्या आपने भी गड्‌ढों से दोस्ती कर ली?’, डंडा शरण ने तंज कसा।

‘अरे नहीं बेटा! मैं सोच रहा था कि गर गड्‌ढे चुनाव लड़े…’

‘…तो जीत जाएंगे, यही ना?’, डंडा शरण ने अनुभव की बात काटी, फिर आगे बोला…

‘ठीक कह रहे हो काका! लेकिन आरोपों से भरे बदबूदार गड्‌ढे मैदान से बाहर होंगे। नए व साफ-सुथरे गड्‌ढों की तलाश शुरू होगी, जो कमीशन का काला धन पचा सकें। गड्‌ढा अगर गूंगा हुआ, तो अध्यक्ष बनना तय समझिए।’, कहकर डंडा शरण ने खूब ठहाके लगाए और अनुभव के चेहरे पर असमंजस की झुर्रियां खिल उठीं।

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Last modified on Saturday, 12 December 2020 19:53

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