पंडित का अर्थ यहां उस विद्वान से है, जिसने सियासत के तार संगीत से जोड़े और संगठन गीत गाकर सिंहासन हिला दिया। इससे पहले बात करेंगे उस पाखंड की, जिसके चलते सियासत शर्मसार हुई।
मंच पर नेताओं का नाटक अब केवल संवाद अदायगी तक सीमित नहीं रह गया है। वह, कुछ और करने को आतुर हैं। अनुभव के साथ अभिनय क्षमता बढ़ रही है। उसमें निखार आ रहा है। ऐसी प्रस्तुतियां अक्सर देखने को मिल जाती हैं। लेकिन कुछ अपरिपक्व तो फूहड़ता को ही हुनर मान बैठे हैं।

भरतपुर सोनहत में घुटरा गांव का शादी समारोह इसका गवाह बना, जहां ऐसी प्रतिभा की पराकाष्ठा दिखी। ग्लैमर संग खादी के डांस की खबर सोशल मीडिया पर आग की तरह फैली। वायरल वीडियो ने सरकार की ख्याति में चार चांद लगा दिए। डांसर के साथ नेताजी का तालमेल काफी सराहा गया। लाइक, शेयर और कमेंट्स भी खूब मिले।
जनता ने संस्कारों की झलक देखी। सारे राज बेपर्दा हो गए। पता चल गया चोले के पीछे नायक है या खलनायक! दाऊ जी ने ढोल-मांदर की थाप पर संस्कृति सहेजी। आदिवासी बालाओं से ताल मिलाकर उत्सव की बोआई की। गेड़ी चढ़कर देहात के दिल तक पहुंचे। हथेली पर लट्टू घुमाया। पुन्नी में डुबकी भी लगाई ताकि हर छत्तीगढ़िया गौरवान्वित हो। यहां उनके ही होनहार ने गौरव को तार-तार कर दिया।
हमर पारा, तुहंर पारा… गीत पर थिरकते माननीय के पांव ने संस्कृति की जड़ें हिला कर रख दीं। पद-प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर वह मंच पर उतरे, सिर्फ घुंघरू पहनना बाकी था। रही सही कसर चमचों ने पूरी कर दी। आका के हर ठुमके पर जमकर नोट उड़ाए। इतने पर भी नेताजी को शर्म नहीं आई, कहा- ये तो उनका घुलना-मिलना था।
बताने की जरूरत नहीं! वायरल वीडियो में सबकुछ दिखाई दे रहा है। चेहरे की लालिमा से मेल मिलाप के आनंद का आकलन किया जा सकता है। शुक्र है, गुलाबो... ज़रा इत्र गिरा दो… की धुन नहीं बजी वरना आपा ही खो बैठते। फिर सफाई में कहने को रह जाता कि कमर ने नहीं सुनी। जैसे, आप कहते और जनता मान लेती? आपकी नज़रों में बेवकूफ जो ठहरे!
...पर इतने भी नहीं कि 'घुल-मिल' और 'घालमेल' का फर्क न समझ सकें। भाव भंगिमा से पाखंड की भनक लग ही जाती है।

अब बात करते हैं राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र के सियासी पंडित की। आम आदमी सरगम का साधक भले ही न हो, परंतु सधे सुरों की परख हर कान को होती है। कर्णप्रिय संगीत सुनते ही कदम थम से जाते हैं। कंठ से निकला हर स्वर सीधे दिल में उतर जाता है।
नेता जिस तासीर को नकारते रहे, उसे 'पंडितजी' ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पिछले दिनों खैरागढ़ के कार्यक्रमों में उनकी सहज उपस्थिति ने स्वयंभू हुक्मरानों के कान खड़े कर दिए। गोपाष्टमी पर अस्थाई गोशाला में अचानक पहुंचकर रामायण गाया। गौ सेवा से जुड़े किस्से सुनाए, तो सेवक कायल हो गए।
दूसरी बार पिपरिया के कबीर आश्रम में अपनी सहजता दोहराई। संकल्पक्रांति के युवाओं को संगठन गीत गवाया, संगठन गढ़े चलो... सुपंथ पर बढ़े चलो.., भला हो जिसमें देश का.., वो काम सब किए चलो...। कहानी सुनाई। श्रमदानियों का उत्साह बढ़ाया। इस दौरान उनके साथ कोई 'रागी' नहीं था, जो हर बोल पर तारीफों के पुल बांधता। कबीले के इक्का-दुक्का चेहरे जरूर दिखे। कुछ ऐसे भी, जिनसे खैरागढ़िया सियासत परहेज करती है।
पंडिताई देखिए, सियासत की बात छेड़े बिना खलबली मचा दी। विरोधियों की बेचैनी बढ़ी और समर्थकों में संतोष पनपा। वैसे भी, राजनीति में परिपक्वता परखने के यही दो पैमाने कारगर हैं। आपत्ति दर्ज कराने वालों को मुंह की खानी पड़ी। भई, इसे कहते हैं नहले पे दहला!