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Rathyatra Special / छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं भगवान जगन्नाथ Featured

पुरी जैसे ही कई रहस्यों को खुद में समेटा हुआ है शिवरीनारायण 

✍️जितेंद्र शर्मा


हिंदुओं के चार प्रमुख तीर्थ स्थानों (धाम) में से एक ओडिशा के पुरी (Puri) का जगन्नाथ मंदिर है। यहां आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन निकलने वाली रथयात्रा (Rathyatra) विश्व प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ (Jagannath) यहां साक्षात विद्यमान हैं और उनके दर्शन मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह मंदिर अपने आप में कई रहस्यों को भी समेटे हुए है। पुरी (Puri) के साथ ही ओडिशा और छत्तीसगढ़ राज्य में भी यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ (Jagannath) का मूल स्थान छत्तीसगढ़ का शिवरीनारायण (Shivarinarayanah) है। जिसे शबरीनारायण के नाम से भी जाना जाता है। प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार हरि ठाकुर लिखित छत्तीसगढ़ गौरव गाथा में कई स्थानों पर इसका उल्लेख प्रमाणों के साथ किया गया है।

Jagannathrathyatra (file photo)

महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के संगम में स्थित प्राचीन नगरी  शिवरीनारायण (Shivarinarayanah) का उल्लेख रामायण (Ramayana) काल में भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि राम वन गमन के दौरान भगवान राम  को शबरी ने यहीं जूठे बेर खिलाए थे। कई रहस्यों को समेटे इस नगरी को तीन नदियों का संगम होने के कारण गुप्त प्रयाग भी माना जाता है। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूर्व में जगन्नाथ (Jagannath) और पश्चिम में द्वारिका इन चारों धामों के अतिरिक्त इस स्थान को गुप्त धाम की भी संज्ञा दी जाती है। जानकार बताते हैं कि इस आशय का उल्लेख रामावतार चरित्र और याज्ञवल्क्य संहिता में मिलता है। मान्यता यह भी है कि भगवान जगन्नाथ माघ पूर्णिमा के दिन पुरी से शिवरीनारायण आते हैं और एक दिन यहां विराजते हैं। इसी कारण आज भी इस दिन यहां भव्य मेला लगा करता है। 11वीं-12वीं सदी के यहां स्थित मंदिरों के रहस्य, श्री चरणों में स्थित कभी न सूखने वाला जल कुंड, दोने के आकार के पत्ते वाले कृष्ण वट वृक्ष आदि तो अभी भी इस नगरी की प्राचीनता की कहानी कहते हैं, साथ ही कई पुराणों में इस स्थान का उल्लेख इसे आस्था से जोड़ता है।

Shivarinarayana Mandir chhattisgarh


छत्तीसगढ़ गौरवगाथा में उल्लेखित प्रमाणों के अनुसार शिवरीनारायण ही वह स्थान है जहां जगन्नाथ विराजित थे। प्राचीन काल में यह स्थान शबर लोगों का निवास स्थान था। रामायण  के अनुसार शबरी ने भगवान राम को इसी स्थान पर जूठे बेर खिलाए थे जो एक शबर महिला थी। माना जाता है कि यहां स्थित कृष्ण वट वृक्ष के दोने के आकार वाले पत्तों में भी उन्होंने प्रभु को बेर परोसे थे। डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र ने शबरों को भारत का मूल निवासी बताया है। वे शबरों को मंत्रों का ज्ञाता कहते हैं। मंत्रों में शाबर मंत्रों को अमोध और स्वयं सिद्ध स्वीकार किया जाता है। यह भी माना जाता है कि राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज के काल से ही शिवरीनारायण (Shivarinarayanah) में जात्रा की परंपरा चली आ रही है। बिलासपुर गजेटियर के अनुसार शिवरीनारायण एक घने जंगल वाला क्षेत्र था। यहां के निवासी शबर भगवान जगन्नाथ की आराधना करते थे। एक ब्राह्मण ने जगन्नाथ की मूर्ति उनसे प्राप्त कर पुरी में प्रतिष्ठित कराई थी। बदले में शबरों को वरदान मिला था कि उनके साथ नारायण हमेशा जुड़ा रहेगा और तभी से उन्हें शबर-नारायण कहा जाने लगा। बाद में इसी से स्थान का नाम शबरीनारायण पड़ा जिसे अब शिवरीनारायण कहा जाने लगा है।


एक मान्यता यह भी है कि पुरी में भगवान जगन्नाथ (Jagannath) की प्राण प्रतिष्ठा किसी ब्राह्मण ने नहीं, बल्कि इंद्रभूति ने कराई थी। इंद्रभूति वज्रयान शाखा के संस्थापक थे। इनका काल 8वीं-9वीं शताब्दी निर्धारित है। बौद्ध साहित्य में उन्हें वज्रयान संप्रदाय का प्रर्वतक बताया गया है। वे अनंगवज्र के शिष्य थे। कविराज गोपीनाथ ने इंद्रभूति को उड्डयन सिद्ध अवभूत कहा है। सहजयान की संस्थापिका लक्ष्मीकंरा इंद्रभूति की बहन थीं। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत में लामा संप्रदाय की स्थापना की थी। उनका मानना है कि शबर तंत्र-मंत्रों के रहस्यों के ज्ञाता थे। इस मंत्र यान से वज्रयान की शाखा निकली है। वज्रयान तांत्रिक बौद्धों की प्रमुख शाखा है। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखे हैं। ज्ञान सिद्धि उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। ज्ञान सिद्धि में उन्होंने कई बार भगवान जगन्नाथ की वंदना की है। इंद्रभूति जगन्नाथ को स्वामी को बुद्ध के रूप में पूजते थे और तंत्र साधना करते थे।


ओडिशा के इतिहासकार जेपी सिंहदेव ने लिखा है कि इंद्रभूति ही जगन्नाथ को शबरीनारायण से सोनपुर के पास समलई पहाड़ी की गुफा लेकर आए थे और वहीं तंत्र साधना करते थे। असम के कलिका पुराण में भी कहा गया है कि तंत्र का उदय ओडिशा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्ट देव थे। इंद्रभूति के बाद उनके पुत्र पद्मसंभव ने तंत्र पीठ का संचालन किया। वह भी पिता की तरह सिद्ध पुरुष थे। बाद में तिब्बत नरेश रव्री स्रोंगल्दे के आमंत्रण पर पद्मसंभव तिब्बत चले गए। लक्ष्मीकांरा का विवाह जालेंद्रनाथ से हो गया। अब भगवान जगन्नाथ (Jagannath) की विशेष आराधना करने वाला कोई नहीं था। इसी समय तंत्र संप्रदाय के लोग भगवान जगन्नाथ को पुरी ले गए। 11वीं शताब्दी में अनंत वर्मा चोडगंग ने दक्षिण से आकर ओडिशा पर विजय प्राप्त की। भगवान जगन्नाथ  स्वामी का पुरी (Puri) में मंदिर उन्होंनेे ही बनवाया। अनंत वर्मा का शासनकाल 1076 से 1108 ई. तक माना जाता है।

 

छत्तीसगढ़ के इतिहास और संस्कृति के जानकार आशीष सिंह के अनुसार शास्त्रों में पुरी को शाक क्षेत्र, शंख क्षेत्र, श्री क्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, नीलांचल और नीलगिरी भी कहा जाता है। महाभारत के वन पर्व में पुरी का उल्लेख मिलता है। मान्यता यह भी है कि पांडवों ने अज्ञातवास में भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए थे। कहा तो यह भी जाता है कि कश्मीर से बेथलहम लौटते वक्त ईसा मसीह ने भी जगन्नाथ स्वामी के दर्शन किए थे। जनश्रुति है कि पुरी (Puri) धाम की यात्रा तब तक पूरी नहीं होती जब तक श्रद्धालु राजिम (Rajim) में भगवान राजीव लोचल के दर्शन न कर ले। प्रोफेसर अश्विनी केसरवानी ने लिखा है कि शिवरीनारायण ही वह क्षेत्र है जहां श्री कृष्ण के पांव में बहेलिया के तीर लगे थे। ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग ने भी एक मुलाकात के दौरान छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुसदकर से प्रमाणों के साथ इस बात का उल्लेख किया था कि भगवान जगन्नाथ शिवरीनारायण से ही पुरी  गए थे।

Jitendra Sharma

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Last modified on Monday, 22 June 2020 17:51

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