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- पत्रकारिता और साहित्य में आवश्यक है लोकमंगल
- ‘कुलपति संवाद’ व्याख्यानमाला में ‘साहित्य और पत्रकारिता’ विषय पर प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने रखे विचार,
- 12 जून को शाम 4:00 बजे ‘मीडिया में स्त्री मुद्दे’ विषय पर डॉ. आशा शुक्ला का व्याख्यान
भोपाल, 11 जून 2020। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित ‘कुलपति संवाद’ ऑनलाइन व्याख्यानमाला में प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने कहा कि साहित्य के बिना पत्रकारिता की बात और पत्रकारिता के बिना साहित्य का जिक्र करना बेमानी सा लगता है। पत्रकारिता अपने उद्भव से ही लोकमंगल का भाव लेकर चली है। साहित्य का भी यही भाव हमेशा रहा है। इसीलिए यह दोनों हमेशा साथ-साथ चले हैं।
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‘साहित्य और पत्रकारिता’ विषय पर अपने उद्बोधन में सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे ने कहा कि भारत में पत्रकारिता आधुनिकता के साथ आती है। यह आधुनिकता का विशेष उपहार है। पत्रकारिता के साथ ही भारत में पुनर्जागरण शुरू हुआ, इस पुनर्जागरण में कई साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। कुछ साहित्यकारों ने पत्रिकाओं का प्रकाशन कर राष्ट्रबोध कराने का प्रयास किया, तो कुछ साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश के लोगों को जगाने का प्रयास किया। इस दौर में पत्रकारिता और साहित्य का एक ही उद्देश्य था- पराधीनता से मुक्ति।
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उन्होंने कहा कि पत्रकारिता अपनी शुरुआत से ही अन्याय, अनीति, अत्याचार एवं शासन के खिलाफ रही है। यही कारण था कि हिक्की के समाचार पत्र को प्रतिबंधित किया गया, क्योंकि वह अंग्रेज अधिकारियों के भ्रष्टाचार को उजागर करता था। पत्रकारिता हमेशा से ही बेहतर प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती आई है।
प्रो. दुबे ने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता का जो अन्योन्याश्रित संबंध है वह भारतेंदु हरिश्चंद्र युग की पत्रकारिता में देखा जा सकता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने साहित्य को पत्रकारिता का माध्यम बनाते हैं और लोकमंगल की भावना से पत्रकारिता की शुरुआत करते हैं। भारतेंदु युग में ही राष्ट्रीय प्रेम से ओत-प्रोत कविताओं का भी आग्रह हुआ, साथ ही इसी समय स्वदेशी का आवाह्न भी हुआ। उस समय स्वदेशी के आवाह्न में कहा गया कि हम यह प्रतिज्ञा करें कि हम अब विलायती वस्त्र मोल नहीं खरीदेंगे, लेकिन जो वस्त्र पहले से मोल लिया है उसे जीर्ण होने तक पहनेंगे। राष्ट्रबोध के ऐसे कई प्रयास उस समय के साहित्यकारों ने पत्रिकाओं के माध्यम से ही किये थे। साहित्य, समाज और राष्ट्रप्रेम एक दूसरे में बंधे हुए हैं इसलिए भारतेंदु कहते हैं कि ऐसे साहित्य की रचना करना चाहिए जिसमें राष्ट्रप्रेम का भाव छुपा हो।
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उन्होंने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता का यह अभेद नाता महावीर प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा समझा जा सकता है। उनके विषय में यह तय करना कठिन है कि वे एक अच्छे साहित्यकार थे या अच्छे पत्रकार, दोनों ही विधाओं को उन्होंने साथ-साथ आगे बढ़ाया। साहित्य और पत्रकारिता का संबंध बताते हुए प्रो. दुबे ने बताया कि प्रायः सभी साहित्यकार कहीं ना कहीं पत्रकार ही होते हैं। वह अपनी रचनाओं को प्रकाशित कराते हैं, लोगों तक पहुंचाते हैं, साहित्य से समाज में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं। यही पत्रकारिता के भी कार्य हैं।
अपने उद्बोधन में प्रो. दुबे ने कहा कि साहित्य और पत्रकारिता ने अपनी विकास यात्रा लगभग एक साथ ही तय की है। वीणा, सरस्वती, मतवाला आदि कई पत्रिकाओं ने कई बड़े साहित्यकारों को जन्म दिया है, तो वही कई साहित्यकारों ने सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया है। ऐसे में साहित्य और पत्रकारिता दोनों ही समाज को जागृत करने का प्रयास सदैव करते रहे हैं।
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