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बड़ा सवाल... तो क्या बूढ़े हो गए हैं ‘आप'?...✍️प्राकृत शरण सिंह

मुखरता लोकतंत्र की निशानी है। खुद दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने टूलकिट मामले में जमानत याचिका की सुनवाई मंजूर करते वक़्त टिप्पणी की। कहा- ‘सरकारी नीतियों में निष्पक्षता रखने के लिए असहमति, अलग राय, मतभेद, नापसंदगी आदि वैधानिक रूप से मान्य साधन हैं। जागरूक और मुखर आबादी निर्विवाद रूप से दमकते लोकतंत्र की निशानी है।'

इसे पढ़ने के बाद खैरागढ़ की प्रशासनिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर नज़र डालें। नगर सरकार के कार्यकाल की समाप्ति के बाद 33 करोड़ के काम ने तेजी पकड़ी। पांच माह पहले पाई गई खामियों को नजरअंदाज कर दिया गया। दोषी बख्श दिए गए, क्योंकि गड़बड़ी मिलने के बावजूद कोई टिप्पणी ही नहीं की गई थी।

नगर पालिका में जगह बनाने को आतुर आम आदमी पार्टी ने मुद्दा पकड़ा तो जरूर, लेकिन गड्ढे और धूल से ज्यादा नहीं बोल पा रही। इससे पहले भाजपा ने माहोल गरमाया था। विधानसभा तक सवाल उठाए। बाद में उनकी भी राजनीति बाबूगिरी तक सिमट कर रह गई। टीम के सबसे मजबूत खिलाड़ी ने यह कहते हुए हाथ खींच लिया कि सरकार हमारी नहीं है। उन्हीं की चलेगी।

उनके इस बोल से ऐसा लगा, जैसे खुद की सरकार में उनकी मर्जी चली हो! हो भी सकता है, किन्तु यह तो तब के विपक्ष की असफलता थी, जो उनकी जुबान नहीं खुली! आज के असरकार का इसे कमजोरी बना लेना अपने मतदाताओं को ठगने जैसा है। जब तक ये मुद्दे चुनावी भाषणों की शोभा बनेंगे, तब तक न जाने कितनी देर हो चुकी होगी।

इस बार असरकार से ज्यादा सवाल पूछे जाएंगे। पूछे ही जाने चाहिए। पटियाला हाउस कोर्ट की टिप्पणी को दोबारा पढ़िए और एक बार खुद से सवाल करिए- ‘क्या आपने विपक्ष की भूमिका निभाई? पूरी ताकत से असहमति जताई? क्या आपने चुनावी रणनीति की ही तरह जन मुद्दों को भी गंभीरता से लिया? या सिर्फ यह कहकर हाथ पर हाथ धरे बैठ गए कि कुछ नहीं हो सकता, हमारी सरकार आएगी, तब करेंगे।'

श्रीराम नाम के तैरते पत्थरों से बने मजबूत आधार पर चलकर वानर सेना ने महासागर पार किया था। भगवान श्री हनुमान ने श्रीराम नाम जपकर आत्मबल को मजबूत किया और संजीवनी बूटी के लिए पूरा पहाड़ उखाड़ लाए थे। रोज सुबह ढोल-मंजीरे के साथ श्रीराम की धुन पर प्रभातफेरी निकालना बहुत अच्छी पहल है, लेकिन इससे मिलने वाली ऊर्जा का उपयोग अपनी भूमिका को जीवंत बनाने में करना सार्थक होगा।

किरदार को जीवंत करना कांग्रेस से सीखिए, जो फिलहाल भूमिपूजन पर धारावाहिक बना रही है। पांच साल के तमाम काम दो महीने में ही पूरा करने का लक्ष्य रखा है। दो दिन पहले विश्वविद्यालय की ओर जाने वाली सड़क साफ कर रही महिला चाय पर चर्चा करते समय दुखड़ा सुना रही थी। परिचित से उधार के लिए हाथ भी फैलाए। पूछने पर पता चला कि पालिका में वेतन के लाले हैं।

अचानक टेलीविजन धारावाहिकों पर ध्यान गया, जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के सदस्य मखमली गद्देदार सोफे पर बैठे दिखाई दिए। दर्शक जानते हैं कि धारावाहिकों में दिखने वाली जिंदगी, असल से बिल्कुल अलग है। फिर भी उस काल्पनिक जीवन का स्वाद उन्हें खूब भाता है। इसे देखकर ही वे सुख का अनुभव करते हैं।

देखने वालों की तादाद बड़ी है, इसलिए ऐसे काल्पनिक धारावाहिकों का सिलसिला हर चैनल पर दिखेगा। इनकी टीआरपी आस्था से जुड़े कार्यक्रमों को पछाड़ चुकी है। योग, प्राणायाम, भजन, प्रवचन आदि सुबह ही देखे जाते हैं, परंतु काल्पनिक किस्से देर रात तक मन लुभाते हैं। इनकी कहानियां सास-बहुओं के बीच चटखारे लेकर सुने व सुनाए जाते हैं। धारावाहिक के जरिए वोटरों तक पहुंचने की रणनीति ने काम किया तो कांग्रेस दोबारा नगर सरकार बना सकती है।

यह समय निर्णय लेने का है। विश्वभारती विश्विद्यालय के दीक्षांत समारोह में खुद प्रधानमंत्री कह चुके हैं, ‘अगर फैसले लेने की हिम्मत चली गई तो समझें कि आप युवा नही रहे।' इसमें लॉजिक है, अगर आप निर्णय नहीं ले पा रहे हैं तो समझिए बूढ़े हो रहे हैं। और समाज बुजुर्गों को सम्मान देता है, जिम्मेदारी के लिए युवा कंधे ही चुने जाते हैं! भला दबी जुबान विरोध करने वालों की आवाज सरकार के कानों को कैसे सुनाई देगी?

पटवारी सहित पूरे राजस्व अमले ने कुदरत के कानून को नकार कर दिशा बदल डाली। दस्तावेजों से हुई छेड़छाड़ से समझा जा सकता है कि कैसे संगठित अपराध को अंजाम देकर जनता के करोड़ों रुपए हज़म कर लिए गए। अभी भी बायपास अधूरा ही है। अगर 33 करोड़ के जल आवर्धन को भी लावारिस छोड़ दिया गया, तो अंत में शून्य ही हासिल होगा, 59 करोड़ के प्रधानपाठ बैराज जैसा!

मुखर होने वाले नागरिक लोकतंत्र के प्रहरी हैं। उनकी आवाज मत दबाइए। उनसे सुर मिलाइए। अलग राय रखने वाले दुश्मन नहीं होते। नापसंदगी का मतलब अलगाव नहीं हो सकता। निष्पक्षता के लिए असहमति को भी तवज्जो देनी होगी। यदि ऐसा नहीं किया तो पक्षपात के आरोप लगेंगे।

स्थिति स्पष्ट करनी होगी। भ्रष्ट अफसरशाही की तीमारदारी करने वाले कभी भी जनसेवक नहीं हो सकते। जनता का नेतृत्व करने के लिए मुद्दों पर सवाल करने का माद्दा जरूरी है। दमखम दिखाने वाला ही जन-मन/मत जीतने का अधिकारी है। केवल डफली बजाने वाले अगली बारी का इंतजार करें!

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Last modified on Thursday, 25 February 2021 13:09

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