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स्मृति शेष: 16 की उम्र में सीखी कला, किया मूर्तियों का कारोबार, फिर मंदिरों को दान कर पुण्य कमा गए रतन

 

खैरागढ़. चाहे मूर्ति श्रीगणेश की हो या देवी दुर्गा की, आंख की चमक बता देती थी कि यह रतन ढीमर की कला है। जीवनभर मूर्तियों का कारोबार किया। इसी व्यवसाय से परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारी, लेकिन कभी भी पैसा बनाने को जीवन का आधार नहीं बनाया। जब जहां जरूरत पड़ी दान किया। अभी भी बेटों को कहकर गए हैं कि शीतला मंदिर में हनुमान जी की मूर्ति, बड़ा घंटा और कलश दान करना है।

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वह जब 16 के थे, तब मूर्तिकला सीखने के लिए दुर्ग की ओर रुख किया। तब तक राज मिस्त्री का काम किया करते थे। मूर्तिकला में पारंगत होते ही उन्होंने खैरागढ़ को ही ठिया बनाया और तन, मन, धन से इसी काम में जुट गए। धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलने लगी। खैरागढ़ में ज्यादातर मोहल्लों में रतन की बनाई मूर्तियां ही स्थापित की जाती थीं।

आसपास के गांव सहित छुईखदान, गंडई, कवर्धा, डोंगरगढ़, दुर्ग, रायपुर के साथ प्रदेश के बाहर नागपुर व उड़ीसा तक उनकी बनाई प्रतिमाएं स्थापित की जाती थीं। प्रतिमाओं के चेहरे की झलक मात्र से लोग रतन की कला को पहचान जाया करते थे। उन्होंने इस न केवल व्यवसाय को अपनाया, बल्कि अपने बच्चों को सिखाया भी।

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जब भी दोस्तों के साथ बैठते धर्म-समाज की बात करते। वह एक अच्छे कलाकार होने के साथ विचारवान व्यक्तित्व भी थे। एक समय धरमपुरा स्थित शनिदेव मंदिर में ज्योति कक्ष निर्माण की चर्चा चली, तब उन्होंने फौरन हामी भरते हुए कहा कि अभी मैं पांच लाख देता हूं। जब समिति के पास हो तो लौटा देना। बाद में समिति ने उन्हें लौटाया भी।

समाज के प्रति उनकी निष्ठा सभी जानते हैं। उन्होंने ढीमर समाज को 20 डिसमिल जमीन दान की है। वे धार्मिक व सामाजिक आयोजनों में सबसे आगे रहा करते थे। इसलिए जैन समाज, निर्मल त्रिवेणी महाभियान जैसी समाजिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। शनिवार दोपहर को उनके निधन बाद रविवार को अंतिम संस्कार के समय हरेक शख्स ने उनके योगदान काे याद किया। अब उनके कला की विरासत उनके तीनों बेटे श्रवण, उत्तम और आशा संभालेंगे।

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(जैसा निवर्तमान नगर पालिका उपाध्यक्ष रामाधार रजक ने रागनीति को बताया)

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