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कला के साधक परेशान हैं। सुर नहीं मिला पा रहे। मिलाएं भी तो कैसे, यह राग सिखाया ही नहीं गया। सुना सबने था, पर कभी पाला नहीं पड़ा। जानते नहीं थे कि बिना सिक्के (धन) के लयबद्ध नहीं हो पाएंगे। सोचा था… हुनर मंज जाएगा, तो पिता के पसीने का कर्ज अदा कर पाएंगे। मां के आंचल को आंसुओं से बचाएंगे।
हुआ ठीक उल्टा। प्रतिभा धरी रह गई। यहां भी सिक्के का जोर चला। बेसुरे हो तो भी चलेगा, बस ध्यान रखना जेब से खनक की आवाज मंद न हो। इसे कम से कम मध्य सप्तक में बनाए रखना। मंद्र सप्तक में न आने देना वरना नजरों से उतर जाओगे। तार सप्तक में रहे तो क्या कहने, फिर तो सिक्का तुम्हारा ही चलेगा। बिना लाग लपेट डिग्री हाथों में होगी।
बताने की जरूरत नहीं, शब्दों के रास्ते आप संगीत विश्वविद्यालय में प्रवेश कर चुके हैं। जहां साधकों (विद्यार्थियों) का संघर्ष जारी है। प्रशासन को कर्णप्रिय लगने वाली सिक्के की खनक उनकी साधना में विघ्न डाल रही है। कार्यकारिणी के निर्णय ने तो उम्मीदों पर पानी ही फेर दिया। वजह नहीं बताई, बस इतना कह दिया, ‘शुल्क में कमी संभव नहीं’।
परीक्षा फार्म जमा करने की तारीख बढ़ाने के साथ विशेष अनुमति शुल्क के नाम पर आर्थिक बोझ लाद दिया। शुल्क के आगे ‘विलंब’ जोड़कर विरोध के स्वर दबाए नहीं जा सके, इसलिए ‘विशेष’ का सहारा लिया गया। साधक समझ नहीं पा रहे कि यह उनकी परिस्थितियों का मजाक है या खुद मंदी से उबरने का प्रयास!
विद्यार्थी कह रहे हैं, ‘अब तक हर तरह के शुल्क देते आए थे, बिना रसीद वाले भी। फिर चाहे मशीन में आई खराबी को सुधरवाना हो या बाह्य परीक्षक की खातिरदारी, चंदा देने से नहीं कतराए। वो छाेड़िए, स्वाइप मशीन से निकलने वाली स्लिप को ही रसीद मानकर खामोश रहे। हालांकि इसमें पता नहीं चलता कि विश्वविद्यालय प्रशासन किस प्रयोजन के लिए कितना शुल्क वसूल रहा है।’
‘बस दुखड़ा रोया था, परिवार समझकर। यह भी नहीं कहा कि पूरी माफ कर दो। कम करने की गुजारिश थी। जरा तुलना करके देखिए प्रयाग, मुंबई और चंडीगढ़ की संस्थाओं के डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के शुल्क की, पांच से छह गुना अधिक ही है, कम नहीं। डिग्री की तो बात ही छोड़िए। फिर भी ऐसी क्या मजबूरी थी कार्यकारिणी की कि शुल्क घटाना असंभव सा लगा!’
‘कार्यकारिणी में तो प्रदेश के चुनिंदा विधायक भी हैं और विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्य भी, उन्होंने तो जरूर हमारा पक्ष रखा होगा। क्या उन्होंने यह नहीं कहा कि पहली बार ऐसी मांग उठी है, जरूर महामारी की मार झेल रहे होंगे। क्या किसी ने भी 65 साल पहले विश्वविद्यालय स्थापना के उद्देश्यों की दुहाई नहीं दी। जरूर दी होगी! आखिर उन्हें हमारा पक्ष रखने के लिए ही तो चुना है, हमने। वे विश्वास नहीं खोएंगे। फिर ऐसी क्या वजह है कि फीस में कटौती असंभव लगी।’
मैडम! साधक शालीन हैं, आक्रामक नहीं। इसलिए विश्वविद्यालय के लोगो में रचनात्मक परिवर्तन कर विरोध जताया। नोटों का सिंहासन नहीं बनाया! इसके बावजूद प्रशासनिक धुरंधरों ने पुराने पैंतरे अपनाए, आवाज दबाने के। उन्हें स्वर कोकिला पर विश्वास था। अभी भी भरोसा टूटा नहीं है। राजभवन में उन्होंने अर्जी ही लगाई है...।
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