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'छोटे मियां' ने दुखती रग पर हाथ रख दिया है। विलाप की कोई जगह नहीं बची। इसलिए मिलाप के आलाप छेड़े जा रहे हैं। आवाज 'बड़े मियां' तक भी पहुंचाई गई। वह तो अनुभवी ठहरे! मिजाज भांपते देर नहीं लगी। ताल ठोंकी और संदेश वाहक से बोले- सुर सुधारो।
कितनों के सुर सुधारोगे, बड़े मियां? यहां एक से बढ़कर एक हैं, खुद को उस्ताद समझने वाले! इन बेसुरे उस्तादों की वजह से ही संगीत विश्वविद्यालय की लयबद्धता जाती रही।
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ध्यान से सुनो..! लाइब्रेरी बिल्डिंग पर लगे स्पीकर से ग़ज़ल सुनाई दे रही है।
'निकलो न बेनकाsssssब, ज़माना खराब है…' इस खनकती हुई आवाज के मालिक हैं, सुप्रसिद्ध गायक पंकज उदास…
'और उस पे ये शबाsssssब, ज़माना खराब है…'
धीरे-धीरे ग़ज़ल की आवाज धीमी हुई और वहीं कोने में खड़े फटे पुराने कपड़े पहने व्यक्ति की बुदबुदाहट स्पष्ट होने लगी। एक-एक शब्द कानों में पड़ने लगे।
वह कह रहा है,'कभी ध्रुपद और ठुमरी की गूंज से संगीत नगरी सराबोर हुआ करती थी। तब के कलाकारों की सहजता से उत्कृष्ठता का भान होता था।' (बैकग्राउंड में… ज़माना खराब है, ज़माना खराब है...)
'रोज तड़के एक शख्स खैरागढ़ की सड़कों पर विचरण करते दिख जाते थे, जिनके एक हाथ में होती थी छड़ी और दूसरे में फूल रखने का थैला। चमकती ललाट पर चार चांद लगाता तिलक, मानो साधक की साधना के प्रति समर्पण को दर्शा रहा हो। कोई चरण छूने झुकता तो उनके दोनों हाथ आप से आप जुड़ जाते। छड़ी से कनेर और दशमत की डंगाल झुकाकर ऐसे फूल चुनते, जैसे ध्रुपद की गमक सहेज रहे हों।'
'ऐसा ही मिलता जुलता स्वभाव था, संस्कृत के उस विद्वान का, जो अपनी धोती का एक छोर अक्सर अपनी हाथ में लेकर चलते थे। फैशन ही मान लीजिए। उनकी वाणी से श्लोक सुनना, जैसे स्वयं वीणा वादनी से स्वर-व्यंजन का ज्ञान लेना, बातों में इतना माधुर्य था। सरलता झलकती थी, किन्तु वक्तव्य में विषयों की गहराई और गंभीरता का समावेश उनके विराट व्यक्तित्व का परिचायक था।'
'जिनके लिए सरगम के सात सुर ही कानून थे और इंद्रधनुष के सात रंगों में सारे नियम अधिनियम समाहित थे। मैं ऐसे लोगों के साथ रहा हूं। मैंने ऐसे व्यक्तित्वों की जीवनशैली को पढ़ा है। उनकी रचनात्मकता को गढ़ते देखा है।'
'बड़ी-बड़ी इमारतें नहीं थीं। संसाधन सीमित थे। तब गुरुओं में तपस्वी भाव दिखाई देता था। शिष्यों की उद्दंडता ने कभी उन्हें विचलित किया भी हो, परंतु किसी शिष्य के भविष्य से खिलवाड़ परिपाटी नहीं रही।' (बैकग्राउंड में… राssशिद तुम आ गए हो ना, आखिर फरेब में… कहते न थे, जनाssssब… ज़माना खराब है...)
'तकरीबन दस-बारह सालों से देख रहा हूं। सरस्वती पूजा के लिए बसंत पंचमी की परंपरा की नींव न रखी गई होती, तो पूरे तीन सौ पैंसठ दिन देवी लक्ष्मी का आह्वान करते। इधर इमारतें बनीं, उधर बंगले आकार लेने लगे। परिसर का विकास आरोही (ऊपर उठने वाले सुरों का क्रम) हुआ, जबकि सारेगमपा का रियाज अवरोही (ठीक उल्टा)!' (बैकग्राउंड में... ज़माना खराब है, ज़माना खराब है।)
'संगीतज्ञों को नियमों का पाठ पढ़ाने और कानूनी दांव पेंच से कलाविदों को बचाने के लिए साहब को बिठाया गया। साहब ने नब्ज़ पकड़ ली। कुर्सी पर जमकर बैठ गए। ऐसे बैठे कि अब कुर्सी भी कहती है- यह मलाईदार पद का मजबूत जोड़ है, छूटेगा नहीं! साहब, खुद को मंचों पर गीत-ग़ज़ल से समा बांधने वालों का उस्ताद मान बैठे। राग व तरानों की तरह अधिनियम की धाराओं में मुरकी लेने लगे। मुरकी यानी किसी स्वर को सुंदरतापूर्वक घुमाते हुए दूसरे स्वर पर ले जाने की कला।'
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'सुना है, नियुक्ति नियमों में तो ऐसी-ऐसी मुरकियां ली गईं कि पूछो मत! सीधी भर्ती को तो जन-गण-मन की तरह गाना था, साहब ने इसमें भी मुरकी ली। पहले चहेतों को काम पर बुलाया, उनके अनुभव पर मुहर लगाया, फिर इसे ही आधार बनाकर नौकरी दे दी। जब ऐसा ही करना था तो सीधे पदोन्नत कर देते। ये ढकोसला क्यों? जो षड़यंत्र को समझे, उन्होंने न्याय की गुहार लगाई। कुछ को मिला, कुछ अभी भी न्यायालय के चक्कर लगा रहे हैं।'
'अरे!!! कोई उन्हें बताए कि सूचना का अधिकार अधिनियम बना ही पारदर्शिता के लिए है। फिर छोटे मियां ने परमाणु बम बनाने वाले वैज्ञानिक की कुंडली थोड़े ही मांगी है, जो साहब इतने असहज हो गए! दे ही देंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? अगर सबकुछ नियमों के तहत हुआ है और योग्यता को जिम्मेदारी मिली है, तो यहां मुरकी लेना ठीक नहीं!'
ओ... डंडा शरण!!! उस बुदबुदाते हुए व्यक्ति की नज़र किसी राहगीर पर पड़ी और उसने जोर से चिल्लाया, लेकिन जिसे आवाज दी, वह नहीं रुका। अनसुना कर आगे बढ़ गया।
'जा-जा, तू भी जा! उन तीमारदारों में शामिल हो जा। मुंह क्या छिपाता है..?', लगभग झुंझलाते हुए ऊंची आवाज में बोला ताकि डंडा शरण को उसकी बात सुनाई दे।
'मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी है, अभी। भरोसा है स्वर कोकिला पर, लेकिन तू मेरी बात याद रखना, यदि तूने तेवर बदले तो रियासत की ये धरोहर तुझे माफ नहीं करेगी।'
तभी… बैकग्राउंड ग़ज़ल की आवाज तेज हुई, ऐसा लगा जैसे डंडा शरण जवाब दे रहा हो...
"सबकुछ हमें खबर है, नसीहत न दीजिए
सबकुछ हमें खबर है, नसीहत न दीजिए (ऊंचे सुर में)
सबकुछ हमें खबर है, नसीहत न दीजिए…(थोड़ा नीचे)
क्या होंगे हम खराssssssब (मुरकी)
जमाना खराब है..!"
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