ये है नैसर्गिक न्याय! तीन दिनों की बारिश ने साठगांठ की कलई खोल दी। पानी ने अपने रास्ते बहकर ठेंगा दिखा दिया!
छह दिन (24 अगस्त) पहले की ही बात है। 'मैडम' के आर्डर पर मौका मुआयना करने पहुंचे अफसरों ने नाले के अस्तित्व को ही नकार दिया था। नक्शा देखकर बोले- 'अरे! यहां तो नाला है ही नहीं, ये तो निजी जमीन है।' नगर पालिका ने ढूंढ निकाला...
ये वही हैं, जिन पर सरकारी जमीन का हिसाब रखने की जिम्मेदारी है। नदी-नाले का लेखाजोखा भी यही रखते हैं। ऐसे ही कागजी शेरों की बदौलत श्मशान में सरकारी शराब दुकान खुल गई। तब खोदाई में हड्डियां निकली थीं। सैनिक दादा फूट फूटकर रोया था। चिल्लाता रहा था, 'मेरी पोती का कब्र है मत खोदो!' फिर भी नहीं माने। पुलिस बुला ली। थाने ले जाकर धमकाया। आखिर में सैनिक दादा ने कब्र की पूजा कर पोती से ही माफी मांग ली। दिखाकर कहा था- 'साहब देखकर खोदना, वहां पर पोती की कब्र है।'
करोड़ों की घास जमीनों पर रसूखदार कब्जा कर लेते हैं, इन्हें पता ही नहीं चलता। राजधानी से 30 किलोमीटर दूर अभनपुर में कई एकड़ सरकारी जमीन पर कॉलोनी का बनना सबसे बड़ा उदाहरण है। वहां खुद राजस्व के ही अफसरों के प्लॉट हैं। पटवारी, तहसीलदार, सीईओ सहित अन्य अफसरों ने तो आलीशान बंगले तान रखे हैं। एक पटवारी कहता है, 'मैं तो बहुत छोटा आदमी हूँ, बड़े-बड़े लोगों के आशियाने भी यहीं हैं।' विधायक ने कहा था- बाढ़ नही रोक पायेगा बैराज
रसूख के दबाव में ये काठ के बन जाते हैं। परंतु गरीब की झोपड़ी हटानी हो तो हड्डियों में जान आ जाती है। नोटिस 48 घंटे का देते हैं, लेकिन दूसरे ही दिन कब्जा हटाने दलबल के साथ पहुंच जाते हैं। लाठियां चलाते हैं। साहब थोड़े स्टाइलिश हैं! इसलिए उनकी आंखों पर चढ़े चश्मे से मृतप्राय नक्शा दिखा, जीवंत नाला नहीं! यही कारण है कि रिपोर्ट में आंखों देखा हाल नहीं बताया। नक्शे के आधार पर ही रिपोर्ट बनाई।
एक ने कहा- 'मौके पर तो है, लेकिन रिकॉर्ड को तो नकार नहीं सकते महोदय जी!'
न्याय पालिका पूछती है कि घटना का कोई चश्मदीद गवाह है क्या? जबकि यहां खुद चश्मदीद कह रहा है, 'मैं आंखों देखी नहीं मानूंगा।'
कायदे से नाला देखकर नक्शे पर सवाल उठना था, नक्शा देखकर नाले पर नहीं! आखिर नक्शे से नाला कैसे गायब हो गया? किसने इतनी जुर्रत की?
वैसे पुरानी पीढ़ी पहले से जानती थी, नई पीढ़ी को पानी ने बहकर बता दिया कि यही मेरा रास्ता है। नगर पालिका के पुराने रिकॉर्ड में भी इसके प्रमाण हैं। हालांकि उन्हें अब खंगालने की जरूरत नहीं। पालिका के अफसरों ने लोगों का विश्वास जीत लिया है। टिकरापारा के रहवासी खुद कह रहे थे, 'एक दिन पहले नाला नहीं खोदा होता तो मोहल्ला डूब जाता'। पालिका को लेना पड़ेगा पंगा
काश! 'सेठ जी' के सरकारी नौकरों ने 13 साल पहले पानी को ही नक्शा दिखा दिया होता। समझा दिया होता कि अब तुझे यहां से नहीं बहना है। वह रास्ता बदल देता, तो शायद बात बन जाती!
'मैडम' समझदार हैं! रिकॉर्ड की भाषा समझती हैं और चश्मदीद के मुकरने का कारण समझते उन्हें देर नहीं लगेगी। वह बाढ़ की वर्तमान स्थिति देख चुकी हैं। निश्चित तौर पर 15 साल पहले 2005 में आई बाढ़ का रिकॉर्ड निकलवाएंगी। डुबान क्षेत्र का अभिलेख खंगालेंगी। फिर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
दुविधा होगी तो 13 साल पहले वाले साहब आज भी यही हैं। इसके बाद भी असमंजस की स्थिति रही तो 'बड़े साहब' हैं ही। पानी की दिशा और दशा दोनों का भान रखते हैं। जैन मंदिर वाला नाला पालिका ने खोदकर निकाला...