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यादों में हरिशंकर परसाई : जिनकी कलम ने हमेशा समाज को जगाया

22 अगस्त हरिशंकर परसाई जी की जयंती पर विशेष

✍️ डॉ. परवीन अख्तर

फरसगांव, बस्तर

 

जैसे कोई कलाकार पेंटिंग के एक-एक दृश्य को जीवंत बनाने के लिए अपने शेड गहरे और हल्के करता जाता है, वैसे ही समाज की कुरीतियां भ्रष्ट तंत्र और राजनीतिक स्वार्थ लोलुपता को अनावृत करने के लिए परसाई जी ने व्यंग्य विधा को अपनाया। मानव को जीवंत बनाने की कोशिश की है। उनके व्यंग्य में मानव के सद् विवेक को विकसित करने की अपूर्व क्षमता है। संत्रस्त जनजीवन की गहन अनुभूति है। यही कारण है की आज भी पाठकों में उनकी पैनी पकड़ है।

हरिशंकर परसाई जी का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के जमानी गांव (होशंगाबाद) में हुआ था और देहावसान 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में हुआ। वह हिंदी के पहले ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने व्यंग्य विधा को विस्तार देकर उसे सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर उसकी गहराई तक पाठकों को ले गए। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं, उपन्यास-'रानी नागफनी की कहानी', 'तट की खोज', 'ज्वाला और जल', कहानी संग्रह -'हंसते हैं रोते हैं'।

जैसे उनके दिन फिरे, संस्मरणात्मक निबंध 'हम एक उम्र से वाकिफ हैं' 'जाने पहचाने लोग', 'पगडंडियों का जमाना' पुस्तक में लगभग दो दर्जन निबंध संग्रहित है। व्यंग्य निबंध संग्रह-'तब की बात और थी' 'भूत के पांव पीछे' 'बेईमानी की परत' 'वैष्णव की फिसलन' 'पगडंडियों का जमाना' 'शिकायत मुझे भी है' 'सदाचार का ताबीज' 'अपनी-अपनी बीमारी' 'दो नाक वाले लोग' ,'माटी कहे कुम्हार से' 'ऐसा भी सोचा जाता है' 'तिरछी रेखाएं' 'काग भगोड़ा'।

परसाई जी की प्रारंभिक शिक्षा होशंगाबाद में हुई। उच्च शिक्षा के लिए नागपुर गए। हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। 18 वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी की, फिर अध्यापन कार्य से जुड़ गए। 1957 से नौकरी छोड़ कर स्वतंत्र लेखन में लग गए। जबलपुर से वसुधा मासिक साहित्यिक पत्रिका निकाली। नई दुनिया में 'सुनो भाई साधो' नई कहानियों में 'पांचवा कालम'और 'उलझी उलझी' कल्पना में 'और अंत में' शीर्षक से लिखते रहे। देशबंधु में "पूछिए परसाई से" जिसमें पाठकों के प्रश्नों के उत्तर भी देते थे। उनके व्यंग्य संग्रह "विकलांग श्रद्धा का दौर" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

समसामयिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्ग चरित्र एवं दोहरे व्यक्तित्व पर उनके व्यंग्य लेख शोषक और शोषित वर्ग का खुला चित्रांकन करते हैं। उन्होंने व्यंग्य विधा में अपना लोहा मनवाया है। जीवन्त चरित्रों में, विनोद की शैली से,उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न पहलुओं का जटिल एवं सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। वे कहते हैं " जो पानी छानकर पीते हैं ,वह आदमी का खून बिना छाने पी जाते हैं " मानवीय अनैतिकता की पराकाष्ठा की ओर इंगित करती है।

भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अराजकता तथा शोषण की खाल में घुसे, आधुनिक कहलाने वाले दकियानूसी समाज की सच्ची तस्वीर को कुछ इस तरह उकेरा है, " जो आदमी स्वार्थ का बिल्कुल विसर्जन कर दे वह बहुत खतरनाक हो जाता है दूसरे के प्राण तक ले लेना अपना नैतिक अधिकार समझता है " । आज के डिजिटल युग में जब हम विभिन्न सेटेलाइट के माध्यम से, सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों पर नजर रखकर,हकीकत की तह तक पहुंच सकते हैं, ऐसे समय में उनका " अपील का जादू " वर्तमान व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खोलता है।

जिसमें शुरुआत में कहते हैं " एक देश है गणतंत्र है समस्याओं को इस देश में झाड़-फूंक टोना टोटका से हल किया जाता है।सारी समस्याएं मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं ' उसी में आगे की पंक्तियां हैं - " जैसे गोबर गैस वैसे गोबर नैतिकता " इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा ।" आज भी हमारी दृष्टि में एक खोखलापन बरकरार है। आत्मीयता स्निग्धता एवं संवेदनशीलता जो मानव को मानव के करीब लाती है , हम उससे कोसों दूर हैं । उनकी भाषा में ध्वन्यात्मकता, संप्रेषणीयता तथा जीवंतता है, जिनसे पाठक सीधे जुड़ जाते हैं ।निंदा रस में मानव की ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति को रेखांकित किया है, जिसमें सारा मानव समाज सराबोर है।

वन के विभिन्न क्षेत्रों से चुने गए उनके कथानक, वैयक्तिक होते हुए भी सार्वभौमिक हैं, उनकी प्रायः सभी रचनाएं समसामयिक परिवेश में अपनी प्रासंगिकता रखती हैं , उनकी भाषा सरलता और स्वाभाविकता से पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक परिवेश को युगीन संदर्भों में दृश्यांकित करती है। वे कहते हैं जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है, होगा शायद , पर तभी होगा, जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबड़े टूटेंगे ,"। उन्होंने अपने धारदार लेखन से सुषुप्त समाज को जागृत करने की चेष्टा की है।

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Last modified on Friday, 21 August 2020 15:33

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