बड़ा ही अनोखा खेल है, सियासत का। बिसात बिछाई किसी ने। चालें कोई और ही सोच रहा है, चलने की जिम्मेदारी किसी तीसरे ने संभाल रखी है, जबकि मोहरे बल्लेबाजी में व्यस्त हैं। रन बनाकर मस्त हैं। उन्हें शांति से चल रहे शतरंज का आभास तक नहीं होने दिया जा रहा।
वह, यह बिल्कुल नहीं जानते कि मैच चाहे कोई भी जीते, शह और मात ‘राजा' के ही हाथों में है। माहिर खिलाड़ी जो ठहरे। माेहरों को किरदार में लाना और गेंद की रफ्तार भांपकर बल्ला घुमाना खूब जानते हैं।
वाद-विवाद में उलझे विद्वानों की बातों पर गौर करें, सारी गुत्थी सुलझ जाएगी। काला कोट, वायरल वीडियो का सच उगलवाने के पुलिसिया हथकंडे बता रहा है। अगर मोहरों की चाल समझनी हो, तो पहले मुहर्रिर के इशारे पढ़ने होंगे।
काला कोट: (माथे पर गठान लिए हुए) एक बात बता दूं! ये लोग पुलिस के डंडे को हल्के में ले रहे हैं। जब कुंडली निकलेगी तब पता चलेगा।
मुहर्रिर: (आश्चर्य से) कुंडली!!!
‘...और नहीं तो क्या! धंधा नहीं पूछेगी..? पूछेगी ही। खोद खोदकर पूछेगी। तब राम का नाम लेने भर से बचने का आधार नहीं मिल जाएगा। स्रोत बताने होंगे, आय के।'
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(डायरी निकालते हुए) ‘मानदेय मिलता तो है, 4000 रुपए, शायद!'
‘बस!!! इतना सुनते ही सवालों के फौव्वारे छूटेंगे। वीडियो के डायलॉग दोहराए जाएंगे। हरेक शब्द के कई मायने निकलेंगे।'
‘लेकिन… वीडियो तो फर्जी है।' (अबकि मुहर्रिर ने तरफदारी की और फर्जी पर जोर डाला)
‘उसकी तो फोरेंसिक जांच होगी। (काले कोट ने सामान्य लहजे में कहा) उससे पहले बयान लिए जाएंगे। अगर क्लिपिंग में मिक्सिंग का आरोप है, तो असल घटना पूछी जाएगी। दिखाई दे रहे चेहरों से संबंधों का मिलान होगा। फिर उस आवाज का भी पीछा किया जाएगा, जिसका चेहरा हर किसी के जेहन में है। मकसद भी जानेंगे, वीडियो बनाने का।'
‘अरे हां!!! (मुहर्रिर का माथा ठनका) कोई कह रहा था, वह तो टिकटॉक वीडियो है, जिस पर सेन्सलेस पॉलिटिक्स चल रही।'
‘दाद देनी पड़ेगी, उसके हिम्मत की। सैद्धांतिक पार्टी के होनहार का अवचार कैमरे में कैद करना। लोगों की नज़रों में उसे गुनहगार बनाना। फिर मामला उजागर होने पर पूरी सियासत को ही सेन्सलेस कह देना। वाह भई वाह!' (काले कोट ने ये पूरी बात एक सांस में ऐसे बोली, जैसे अदालत में जिरह चल रही हो।)
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(मुहर्रिर, दाएं हाथ पर ठुड्डी टिकाए एक टक देखता रहा)
‘मूर्ख है, वह! (गर्दन उठाकर फ़ाइल पलटते हुए) यह नहीं जानता कि यहां दिल्ली की राजनीति भी फेल है। और फिर कौन जाने, वह भी मोहरा ही हो! तभी तो भगवा देखकर भी उसके हाथ नहीं कांपे।'
‘वह भी मतलब!!! कितने और हैं..? क्या सारे मोहरे ही हैं..?'
(यह कहते हुए काले कोट की आंखें बटन की तरह बड़ी हो गईं)
‘मेरा मुंह मत खुलवाओ, एक-एक कर बिसात के मोहरे उठाओ, उनकी पहचान बताओ, बाजीगर का पता चुटकियों में लगा लोगे।'
(काला कोट कुछ सोचते हुए) ‘शाहरूख का एक डायलॉग था ना…… हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं, वैसे ही..?'
‘बिल्कुल!!!'
‘देखो, कुतर्क मत करो। कानूनन...'
(मुहर्रिर ने ताली पीटकर बात काटी) ‘कानून की बात काफी पीछे छूट चुकी है, वकील साहब! एक बार सिलसिलेवार सोचकर देखिए। वीडियो किसने बनाई? क्यों बनाई? उसकी जुर्रत बख्श दी गई, क्यों? वह भी मज़ाक समझकर! तब ख्याल नहीं आया भविष्य का?'
(काला कोट हाथ बांधते हुए) ‘बात में दम है, बॉस।'
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‘अब उस किरदार को पहचानिए, जिसने पुरानी कहानी कब्र से निकाली और रातों रात हीरो बन गया। खड़े हैं उसकी काबिलियत और हिमाकत दोनों, कटघरे में। अब कमजोर कंधे पर बंदूक रखकर चलाने वालों के बाजुओं की ताकत परखिए। इसी के दम पर शानदार पारी खेली जा रही है।’
‘इससे भी इनकार नहीं!’ (काले कोट ने सहमति दी)
‘राजतंत्र के दौर में राजा की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। गुणवान सलाहकार हवा की दिशा तय किया करते थे। सोचिए वकील साहब, लोकतंत्र का वह ‘राजा’ कौन है, जिसने नीयत भांप कर नियति तय कर दी। और नहीं, तो मोहरों के तार जोड़िए। पहेली खुद-ब-खुद सुलझ जाएगी।’
‘भला ये क्या बात हुई!? जिस मामले का शोर मचा हो, उसे इशारों में कहने का तुक!’ (काले कोट ने मुहर्रिर को उकसाया ताकि नाम उगलवा सके)
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‘आवाज पहचानने का तजुर्बा है। जोर-जोर से अनाप-शनाप बोलने वाले खाली बर्तन की तरह होते हैं। कभी पानी से भरी गंज के किनारे चम्मच मारकर देखना, तरंगों की गति और ध्वनि की आवृत्ति का अंतर पता चल जाएगा।’
‘मैं फिजिक्स में कमजोर था। हां, कानून की भाषा भलीभांति जानता हूं। लपेटे में दो-चार और आएंगे, ठेकेदार भी। उस भ्रष्टाचार की भी तो जांच होनी चाहिए, जिसे छिपाने के लिए लेन देन हुआ!’ (इतना कहते हुए काले कोट ने उस मामले को भी हवा दे दी, जिसे दबाने के लिए गुलाबी नोट छापे गए)
‘बात तो पते की कही आपने, वकील साहब! बोरवेल्स की गहराई और केसिंग की लंबाई का राज खुलना भी तो बाकी है!' (मुहर्रिर ने मुहर लगाई)
‘वैसे भी ये मैडम के राडार में है। तेवर देखकर लगता तो नहीं वह ऐसे ही जाने देंगी। खैर… हमें क्या!' (काले कोट ने जाने की इजाजत लेने वाले अंदाज़ में कहा और उठ खड़े हुए)
‘अरे… ठहरिए तो सही! एक बात और सुनते जाइए। ‘राजा’ ने अपनी चालें सोच रखी हैं, उतने ही अंदर जाएंगे। नहीं गए, तो भी काम तमाम समझिए। हारने के बावजूद जीत सुनिश्चित है। वजीर भी उनका ही बनेगा! चाहो तो डंडा शरण से पूछ लो…’ (मुहर्रिर ने रोड की तरफ उंगली दिखाकर कहा)
‘सुनो भाई, डंडा शरण! वह कौन है, जो हारकर भी जीतेगा?’ (काले कोट की जिज्ञासा देख डंडा शरण ठिठका)
‘...और सियासी बिसात पर चौका-छक्का जड़ने वाले राजा के बारे में नहीं पूछोगे, वकील साहब?’ (मुहर्रिर ने फिरकी ली, डंडा शरण ने भी हल्की सी मुस्कान बिखेरी और चलता बना)
‘इसकी आंखें बोल रही हैं, इसे सब पता है।’
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‘सबको सब पता है, लेकिन बोलेगा कौन? तर्क दे सकते हैं, सबूत नहीं। फिर वही होगा, तर्कों को निराधार करार देकर राजनीतिक रोटियां सेकी जाएंगी। चापलूस मस्का लगाएंगे और लोकतंत्र के राजा मिल बांटकर खाएंगे।’
आप समझे या नहीं, मोहर्रिर का इशारा!?