पद से हटाए गए छोटे कर्मचारी, बड़े अधिकारी अब भी बचे; प्रशासन की निष्पक्षता पर उठे सवाल
खैरागढ़. जनपद पंचायत छुईखदान में करोड़ों रुपये के 15वें वित्त फर्जी भुगतान घोटाले ने जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ी, प्रशासनिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। लगातार एक महीने से अखबारों की सुर्खियों में बने इस प्रकरण में अब तक सामने आए तथ्यों से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि जिला प्रशासन जांच के नाम पर लीपापोती कर रहा है। निचले स्तर के लिपिकों को बलि का बकरा बनाकर, असली जिम्मेदार बड़े अधिकारियों को सुरक्षित निकालने की पटकथा लिखी जा रही है।
छोटे कर्मचारी पर कार्रवाई, अधिकारी बचे
08 जुलाई 2025 को जिला पंचायत द्वारा जारी आदेश में लिकेश तिवारी, सहायक ग्रेड-02 को 15वें वित्त शाखा प्रभारी के दायित्व से हटाने का आदेश दिया गया है। यह कार्रवाई मीडिया में छाए जनपद घोटाले को लेकर हुई है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि जिन सीईओ, एडीओ और उच्च अधिकारियों की सीधी निगरानी में फर्जी भुगतान हुए, उन्हें अब तक न तो हटाया गया है और न ही उनके खिलाफ कोई जांच की घोषणा की गई है।
जबकि पिछले एक महीने की मीडिया रिपोर्टों में यह स्पष्ट हुआ है कि सीईओ स्वयं जांच अधिकारी बनकर, स्वयं को क्लीन चिट दिलाने का प्रयास कर रहे हैं। लिपिक के द्वारा दिए गए बयान से खुलासा हुआ कि सीईओ ने लिपिक से दबावपूर्वक बयान लिखवाया कि भुगतान संबंधी निर्णय उनकी जानकारी में नहीं था। यह पूरी प्रक्रिया पारदर्शिता और न्याय की अवधारणा का मज़ाक प्रतीत होती है।
65 बिल, 17 वेंडर और सीधा भुगतान
03 जुलाई 2025 की खबर के अनुसार, बिना पंचायतों की सहमति लिए जनपद से सीधे वेंडरों को बिलों के माध्यम से लाखों रुपये का भुगतान कर दिया गया। इनमें से कई वेंडर तो पंचायतों को जानते तक नहीं थे, और कई बिल ऐसे थे जो केवल नाम मात्र के कार्य दिखाकर पास कर दिए गए। ग्राम पंचायतों को भुगतान की कोई जानकारी नहीं दी गई, और फर्जी सहमति पत्र तैयार कर सरपंच-सचिवों पर दबाव डाला गया।
क्यों नहीं उठे सवाल बड़े अफसरों पर?
फर्जी भुगतान की प्रक्रिया में डिजिटल हस्ताक्षर (Dsc) से किए गए भुगतान, बिना कार्य स्थल निरीक्षण के जारी आदेश, और पंचायत प्रस्तावों की अनुपस्थिति स्पष्ट करती है कि यह घोटाला केवल एक लिपिक की सीमा में नहीं था। फिर भी, जांच केवल उन्हीं तक सीमित है। जिन अधिकारियों की जिम्मेदारी योजना अनुमोदन, भुगतान स्वीकृति, और नियंत्रण की थी — उन्हें इस जांच प्रक्रिया में बचा लेना एक सुनियोजित रणनीति की ओर इशारा करता है।
जांच की पारदर्शिता संदिग्ध
यदि जिला प्रशासन वास्तव में दोषियों पर कार्रवाई को लेकर गंभीर होता, तो सबसे पहले सीईओ स्तर के अधिकारियों को उनके पद से हटाकर स्वतंत्र जांच बैठाई जाती। परंतु उल्टा हुआ — सीईओ ने खुद जांच अधिकारी बनकर अपनी सफाई में लिपिक से बयान दिलवाया। यह एक ऐसा उदाहरण है, जो न केवल नैतिकता बल्कि विधिक प्रक्रिया को भी कठघरे में खड़ा करता है।
राजनीतिक हस्तक्षेप का आरोप
स्थानीय सूत्रों का कहना है कि कुछ जनप्रतिनिधियों द्वारा भी अधिकारियों को बचाने के लिए पर्दे के पीछे दबाव बनाया जा रहा है। यही कारण है कि 15वें वित्त की भारी गड़बड़ियों के बावजूद प्रशासनिक कार्रवाई केवल सीमित और सतही दिखाई दे रही है। बयान, रिपोर्ट और कार्यवाही केवल 'प्रतीकात्मक' रूप से हो रही हैं, ताकि जनता की नजरों में कुछ 'होता हुआ' दिखे, जबकि असली आरोपी बचे रहें।