स्व. सुनीता भाले की याद में लगातार दूसरे वर्ष आई फाउंडेशन एवं इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय में कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इस बार इसे सुरता सुनीता का नाम दिया गया। इसी कार्यक्रम के मंच पर प्रो. मुकुंद नारायण भाले ने अपनी यादें ताजा कीं।
नियाव@ खैरागढ़
मंगलवार रात तकरीबन पौने 8 बजे संगीत विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम का नजारा ही अलग दिखा। मंच पर एचओडी प्रो. मुकुंद नारायण भाले तबले पर प्रस्तुति देने बैठे तो उनके शिष्यों ने भी आसपास डेरा जमा लिया। फिर क्या था, क्लास वहीं शुुरु हो गई। सुर-ताल की बातें तो हुई ही बचपन की कहानियां और कॉलेज के किस्से भी सुनाए गए। गुरु भाले ने खैरागढ़ में बिताए दिनों को याद किया। इस दौरान कुलपति प्रो. मांडवी सिंह और दिल्ली से आए पं. विजय शंकर मिश्र विशेष रूप से मौजूद रहे।
ये सब इसलिए भी क्योंकि आने वाले 30 नवंबर को वे सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं। तभी तो मीठी यादों को बांटते समय गला कुछ रुंधा हुआ सा लगा। जब उन्होंने कहा- कोई मुझे कहता है कि बाहरी आदमी हूं तो बहुत कष्ट होता है। मैं खैरागढ़ का हूं। यहां के ऋण हैं मुझ पर। इसे चुकाने की कोशिश कर रहा हूं। मधुरा (बेटी) और आदित्य (बेटे) से मैंने कह दिया है कि भोपाल और मुंबई आता-जाता रहूंगा, लेकिन खैरागढ़ छोड़कर नहीं जाऊंगा।
कार्यक्रम में गुरु अभिवादन के दौरान प्रो. भाले का आशीर्वाद लेते उनके शिष्य।
दीदी के सितार से जुड़े तबले के तार / मुझे याद है संभवत: 1966-67 के समय जब मैं पिता जी के साथ कन्वोकेशन में आया था। दीदी को सितार की डिग्री मिलनी थी। मेरी दीदी का जिक्र करना इसलिए भी क्योंकि उन्हीं के साथ संगत करने के लिए भी मुझे तबला सिखाया गया था। आज उनका मेरे जीवन में बड़ा योगदान है। वे रोहिणी दीक्षित हैं अब, पहले वे वीणा भाले होती थीं।
यहां से जुड़ी हुई है नाल / तब चितचोले साहब, यहां के वाइस चांसलर, पिता जी के अच्छे मित्र थे। पिता जी ने उन्हें पत्र लिखकर कहा कि बेटी को डिग्री तो मिलनी ही है, अगर 10 मिनट बेटे का प्रोग्राम हो जाए तो आते हैं। मैं बताना ये चाह रहा हूं कि खैरागढ़ से मेरी नाल वहां से जुड़ी हुई है। राजा रेड्डी साहब और गोपाल रेड्डी साहब मुख्यअतिथि रहे होंगे। क्योंकि ट्रेन में जाते-जाते राजा रेड्डी-गोपाल रेड्डी… गाते हुए गए थे, इसलिए ये याद है।
प्रो. भाले को उनके आसपास बैठकर सुनते उनके शिष्य।
मुखर्जी साहब बोले इसे पीएचडी दे दो / उस कार्यक्रम में दीनबंधु मुखर्जी साहब भिलाई से आए थे और उन्हांेने मुझे सुना था। बाद में उन्होंने तीन-चार बार मुझसे कहा- हम चितचोले जी को बोला, तुम्हारे लड़के को अभी तुम एमए का डिग्री दिया है तो ये जो लड़का बजाया है, इसको पीएचडी दे दो। इसके बाद 1967 में बुधादित्य मुखर्जी के पहले कार्यक्रम के लिए मुझे ग्वालियर से बुलाया गया। तब से बुधादित्य मुखर्जी जी से मित्रता है। सबसे ज्यादा संगत भी उन्हीं के साथ किए।
डालडे के डिब्ब से उभरी प्रतिभा / प्रो. भाले बोले- बचपन में डालडे का डिब्बा बजाया करता था। पिता जी को लगा कि शायद ये तबला बजा लेगा। वे मुझे राम मंदिर ले गए। वहां के महंत के बेटे खुद तबले के अच्छे जानकार थे। उन्होंने पं. यशवंत राव जी से सीखा था। उनके पास ले जाकर बोले- ये डिब्बा-विब्बा बजाता है। देखिए जरा इसमें कुछ है क्या? मेरी तालीम कब शुरू हुई? मुझे पहला बोल क्या सिखाया गया? मुझे बिलकुल याद नहीं। वे आदि गुरु हैं, इसलिए उनका जिक्र किया।
अच्छा हुआ चुनाव हार गया वरना... / 1971-72 की बात है। बीए ऑनर्स की डिग्री लेने के लिए मैं खैरागढ़ आया। उस समय रामनाथ जी मेरे साथ हुआ करते थे। फिलहाल वही दिख रहे हैं यहां। स्टूडेंट यूनियन के इलेक्शन में सेक्रेटरी के लिए चुनाव भी लड़ा। मेरे खिलाफ रुद्रभूषण सिंह जी खड़े थे। मैं चुनाव हार गया था। अच्छा भी हुआ वरना तबला छूट जाता।
विदेशी बाजों पर बजाया देसी ताल / सुरता सुनीता कार्यक्रम में कोरबा से आए यशवंत वैष्णव, पुणे के ऋतुराज हिंगे और मुंबई से आए सिद्धेश माई ने कलाबाश और कहोन जैसे विदेशी वाद्यों पर तबले का ताल बजाया। अवनद्ध कुतुप का यह प्रयोग श्रोताओं को भाया। खुद प्रो. भाले ने इसकी तारीफ की। हारमोनियम पर साथ दिया ईश्वर दास महंत ने।
विदेश वाद्यों पर इन्हीं कलाकारों ने बजाया देसी ताल।
ना धिन धिन ना के ताल पर बजती रही तालियां / इस कार्यक्रम से पहले सुबह तकरीबन 9 बजे संगीत विभाग के छात्र-छात्राओं ने अपने गुरु प्रो. भाले का अदभुत स्वागत किया। दोनों ओर खड़े विद्यार्थियों के मुख से ना धिन धिन ना… के स्वर गूंजते रहे और इसी ताल पर तालियां बजती रहीं। तबला प्रहर की प्रस्तुति दी गई।
बुधवार शाम इनका कार्यक्रम /28 नवंबर को शाम साढ़े 5 बजे मुंबई के गायक गंधार देशपांडेय का शास्त्रीय गायन। तबले पर सहयोग देंगे यशवंत वैष्णव। विशेष आकर्षण: कोलकाता से आए पं. बुधादित्य मुखर्जी का सितार वादन।