खैरागढ़ से लगा हुआ एक गांव है, दपका! वहीं का सीन पढ़िए/देखिए। घड़ी का छोटा कांटा 3 पर है और बड़ा 5 पर। सेकंड वाला अपनी गति से चाल चल रहा है। सन्नाटे में उसकी आवाज महसूस की जा सकती है। इक्का-दुक्का गाड़ियों की आवाजाही इसमें खलल जरूर डाल रही, लेकिन लय नहीं तोड़ पा रही है।
इतने में दायीं तरफ से आई किसान की पुकार ने सन्नाटे को चीरा। ‘बोझा ल गाड़ा म भरो गेSSSSSS', लगा जैसे चने की फसल पक चुकी है। उसे खलिहान ले जाने की तैयारी की जा रही हो। वह टीम का नेता (नेतृत्वकर्ता) मालूम पड़ा। तभी तो उसका निर्देश पाते ही सारे अक्षरशः पालन करने के लिए जुट गए।
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बायीं तरफ का नजारा अचंभित करने वाला है। इस खेत की पक चुकी फसल के बीच बैठे बगुलों में गजब का अनुशासन दिखा। बैठक चल रही है। वहां भी एक नेतृत्वकर्ता है। टीम को समझा रहा है। भविष्य की चेतावनी दे रहा है। जरा सुनिए…
‘कुछ ही दिनों का दाना पानी लिखा है, यहां। यह फसल भी खलिहान चली जाएगी और इसके साथ हमारा भोजन भी...!'
‘तंग आ चुका हूं, इस जिंदगी से। नए खेत ढूंढो। नई फसलों का इंतजार करो। फिर उसमें कीड़े लगने की राह देखो', नेता की बात बीच में काटते हुए दल के एक सदस्य की झुंझलाहट सामने आई।
‘मैं भी..! कभी-कभी तो खुराक भी पूरी नहीं मिलती', खेत में चल रही इल्ली को झट से पकड़कर फट से गटकते हुए दूसरे ने अपना पक्ष रखा।
‘नियति यही है और नीति भी। इसके अलावा हम कर भी क्या सकते हैं', नेताजी सिद्धांतवादी लगे।
‘नीति और नियति दोनों बदली जा सकती है, कुछ सीखो इंसानों से। मैं तो कहता हूं, मौका अच्छा है। इसे भुनाते हैं। किस्मत आजमाते हैं', यह कहते हुए उसने दूसरी इल्ली निगली।
‘पहले तू ठूंसना बंद कर! नेता है क्या? जहां बैठता है, खाना शुरू कर देता है, पेटू कहीं का। पूरी बात बता', पहले ने झुंझलाते हुए उत्सुकता जताई और दूसरे का नामकरण भी कर दिया।
इस बीच चतुर-चालक बगुले उसके इर्द-गिर्द आकर बैठ गए। महसूस करिए, षड़यंत्र शुरू हुआ और अनुशासन टूटा! ऐसा ही होता है। नेता (नेतृत्वकर्ता) असहज हुआ, लेकिन उसने भी कुछ पाने के लालच में खुद को तसल्ली दे डाली और आगे की चर्चा में कान धर दिए।
‘बगुला भगत!!! जानते भी हो इस मुहावरे का इस्तेमाल किनके लिए होता है? नहीं ना...! मैं बताता हूं। जिस स्वभाव के चलते हम अपना पेट भर पाते हैं, इंसानों ने उसी पर यह मुहावरा बनाया है। वे कहते हैं कि बगुला दलदल में चुपचाप खड़ा रहता है, तपस्वी की तरह। किन्तु शिकार आते ही लपक लेता है', टिड्डा लपकते हुए पेटू बोला।
‘कपटी व धोखेबाज लोगों के लिए इसे इस्तेमाल करते हैं', नेता ने उस मुहावरे को तीखे शब्द दिए।
‘हां... बिल्कुल सही! …तो मैं क्या कहता हूं कि क्यों न हम इस मुहावरे को चरितार्थ कर उन पर ही इसका प्रयोग करें', पेटू ने बिना कुछ खाए लम्बी सांस लेकर यह बात कही।
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‘प्लान क्या है, वो तो बताओ नेताजी', पहले की उत्सुकता बढ़ी।
‘देखो..!!! प्रकृति और प्रवृत्ति तो है ही। सफेद चोला भी प्राकृतिक है। क्यों न हम भी चुनाव लड़ लें…', पेटू ने पंच लाइन छोड़ी। सभी की टकटकी बंध गई।
‘नहीं-नहीं!!! यह हमारे बस का नहीं। दुनियाभर के झमेले हैं। पद पाने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। अपनों को धोखा देना पड़ता है। कल ही अखबार में पढ़ा, 123 वोटरों की सूची सौंपी गई है, जो यहां रहते ही नहीं। हम नहीं कर सकते, ये सब…', नेता ने ध्यान भंग करने की चेष्टा की। उसके चेहरे पर नेतृत्व खत्म होने का डर दिखा।
‘इंसानों की नज़रों में वैसे भी आप बगुला भगत हो! तू बोल...', पहले ने चिढ़कर नेता को टोका और पेटू को प्रोत्साहित किया।
‘ध्यान से सुनो! पार्टी में नेताओं की बन नहीं रही। जोरदार ठन गई है। सब अपने-अपने राम में रमे हैं। मुंह में राम बगल में छुरी वाली स्थिति है। गौर से देखें तो बगुला भगतों की भीड़ दिखेगी।'
‘ये क्या मुहावरों का रेला लगा रहा है, सीधी बात कर…', पहले ने फिर पेटू को टोका।
‘जिले के मुखिया आए थे। कहकर गए हैं- रूठों को मनाओ। एकजुट हो जाओ। अपनी खूबी बताओ, दूसरों की खामी नहीं! चिंता वाजिब है। पूरा नगर देख रहा है।'
पेटू की फुसफुसाहट दूर बैठे दो-चार और बगुलों के कानों में पड़ी। वे भी उड़कर करीब आ गए।
‘भगवा के दो भाग स्पष्ट हो चुके हैं। पंडित जी की सलाह भी नहीं मानी गई। मंडल का दायरा जस का तस दिखाई दे रहा। उनके प्रतिनिधि की नाराजगी सार्वजनिक हो चुकी है। बैठक में न बुलाए जाने का मलाल जाहिर किया, तो रोष देख बाकियों ने पल्ला झाड़ लिया। कुछ बोल नहीं पाए। सारा दोष वफादार के मत्थे मढ़ दिया।'
‘...और सुनो! पंजे की मुट्ठी भी तकरीबन खुल चुकी है। युवा कांग्रेस में की गई फर्जी नियुक्तियां उंगलियों में गिनी जा रही हैं। सुना हूं कि पद गंवाने वाले इस्तीफे की पेशकश करने की सोच रहे। नए सिरे से गठन होने जा रहा है। अबकी बार कमान संभाली है, बड़े मिया ने। जाहिर है उलटफेर होगा ही। उधर पार्टी के वजनदार नेता ने सेवाभावी युवाओं को आमंत्रण देकर बड़ा दांव खेल दिया है।'
‘वो सब तो ठीक है, लेकिन इसमें हम कहां फिट होंगे। हमें कोई पार्टी टिकट क्यों देगी? हमारी भूमिका भी तो समझाओ…', पहले ने प्लान बताने पर जोर दिया।
‘उसी पर आ रहा हूं। (कुछ सोचते हुए...) इन्हें इनकी ही गणित में उलझाकर रखते हैं। ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं। कान के कच्चे ठहरे, दो शब्द बोलो तो चार बातें खुद बना लेते हैं।'
‘...और हम?'
‘हम!!!! हम जनता के पास जाएंगे। उनसे बात करेंगे। उनके मुद्दे उठाएंगे। जीत निश्चित समझो!'
‘इतना आसान नहीं है, खैरागढ़ के वोटर को समझाना! कितनी ही बार बगुला भगतों की चक्कर घिन्नी में फंस चुके हैं। फिर तुम तो साक्षात बगुले हो। भरोसा नहीं जीत पाओगे', नेता ने पंख फड़फड़ाया और अपनी दिशा पकड़ ली। जैसे उसकी उड़ान बैठक खत्म होने का एलान हो। सारे एक साथ उड़े, सिवाय एक के।'
‘बाहर आ जाओ डंडाशरण', उनके उड़ते ही पेटू ने पेड़ के पीछे छिपकर बैठे शख्स को आवाज दी।
‘मममम...मैं!!! मैं तो बस यूं ही!!!!', डंडाशरण झिझकते हुए उसके पास पहुंचा।
‘तुम सोच रहे होगे ना… इतनी देर बैठक का नतीजा सिफर रहा। हाथ कुछ नहीं आया। पेटू की सारी रणनीति धरि रह गई।'
‘हां… नहीं… पता नहीं!!!', डंडाशरण असमंजस में है कि क्या बोले।
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‘दरअसल, ऐसी बैठक कई बार हो चुकी है। आखिर में नेताजी पंख फड़फड़ाते हैं और सारे उनके साथ उड़ जाते हैं। क्यों, पता है..,'
‘नहीं!!!'
‘क्योंकि हम बगुले जरूर हैं, लेकिन हममें कोई बगुला भगत नहीं! मैं भी नहीं!!!', इतना कहकर पेटू ने भी अपने नेता (नेतृत्वकर्ता) की दिशा पकड़ ली।