छत्तीसगढ़ राज्य और यहां की संस्कृति में जल, जंगल, जमीन और वन्यजीवों के प्रति लगाव का अनूठा भाव देखने को मिलता है। यहां की आदिवासी संस्कृति में कई ऐसी मान्यताएं प्रचलित हैं जो हमें प्रकृति और जीव-जन्तुओं का सम्मान करने की सीख देती हैं। यहां के कई गांव ऐसे हैं जहां जंगली हाथियों का आतंक होता है। हर साल हाथी हजारों एकड़ फसल को रौंध देते है और कई ग्रामीणों को मौत के घाट भी उतार देते हैं। प्रकृति और मनुष्य के इस संघर्ष में अपने आप को विनम्रता के साथ ढ़ालने की कला यहां के लोगों ने सीखी है और इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाया है। यहां के सीमावर्ती जिले महासमुंद के एक गांव में हर साल गणेश चतुर्थी पर्व के दौरान ग्रामीण हाथी तिहार मनाते हैं। इस त्योहार में हरियाली देवी की पूजा की जाती है साथ ही विघ्नहर्ता गणेश से विनती की जाती है कि वे गजराजों को सही मार्ग दिखाएं, ताकि वे फसल को बिना नुकसान पहुंचाए गांवों से होते हुए जंगल की ओर चले जाएं।
बिरबिरा गांव में उत्सव का माहौल
महासमुंद जिले के ग्राम बिरबिरा में 17 सितंबर को ग्रामीणों ने'हाथी त्योहार" मनाया। छत्तीसगढ़ के अन्य पारंपरिक पर्वों की तरह ही 'हाथी त्योहार" को लेकर ग्रामीणों में अलग ही उत्साह देखने को मिला। उपवास रखकर नशापान से दूर रहने के साथ ही ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से पूजा-अर्चना कर एकजुटता का परिचय दिया। गांव के सभी लोग सुबह से गजराज की पूजा-अर्चना की तैयारी में जुटे रहे। सभी घरों में खीर-पूड़ी का प्रसाद बनाया गया।
दोपहर दो बजे सभी ग्रामीण एकत्रित होकर नाली खार स्थित देवस्थल जराही-बराही के पास पहुंचे। यहां अच्छी फसल तथा हाथियों के आतंक से गांव के लोगों और फसल को बचाए रखने की कामना की गई। उपरांत लाल रंग के झंडे को खेत में गाड़ दिया गया। खास बात यह रही कि स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चों और युवाओं को छोड़ अन्य कोई भी महिला या पुरुष गांव से बाहर काम करने के लिए नहीं गए
बिरबिरा खैरवार डेरा में 52 और बस्ती पारा में 25 मिलाकर कुल 77 मकान वाला गांव है। यहां की आबादी करीब 400 है। दो-तीन वर्षाें से हाथियों के आतंक से परेशान होने के बाद ग्रामीणों ने आस्था और श्रद्धा का मार्ग अपना लिया है और गजराज की पूजा-अर्चना कर फसल और गांव की खुशहाली की कामना करने में लग गए हैं।