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हम ऐसे ही हैं
हमें फर्क कहाँ पड़ता है......?
पर हम भूल जाते हैं
ये हमारा ही पैसा
वही पैसा जो हम सम्पत्ति कर,जल कर, सफाई कर के रूप में देते हैं ....
वही पैसा जो हम एनओसी के लिए देते हैं.....
फिर हमें दर्द क्यों नहीं होता
होता है
पर हम बोल नहीं सकते हैं
क्योंकि डरते हैं
डरते हैं
यदि आज बोल दिया
तो फिर कल सामना भी तो करना है
कोई काम पड़ गया तो.....
तो फिर वो क्यों नहीं डरते
सामना तो उनको भी करना है
शायद इसलिए नहीं क्योंकि वोट 500 में बिकते हैं
या हज़ार में..... या 2 हज़ार में...... या एक बोतल शराब में...... या तश्तरी में सजते कबाब में
क्या फर्क पड़ता है ?
बुजर्गो की कुर्सियां टूटी हों, या न हों
युवाओं के जिम ख़रीदे ही न गए हों
गरीबों के शौचालय गंदे हों......
और सारे पैसे अधिकारियों और नेताओं की तिजोरियों में सजे हों.....
फर्क पड़ना भी क्यों मेरे रिश्ते तो वहीं हैं
मैंने मौन रहकर रिश्ते बचाए हैं
और यही मेरी पूंजी है
और यही पूंजी मैं अपनी आने वाली पीढ़ी को दूंगा
मैं सिखाऊंगा
बेटे
....... भले ही हमने हक की लड़ाई लड़ कर जिला बनाया हो।
भले ही लड़कर विश्वविद्यालय को रायपुर जाने से बचाया हो।
पर बेटा तुम मौन ही रहना
क्योंकि ये मौन शहर बचाए न बचाए रिश्ते ज़रूर बचाएगा।
वो रिश्ता जो स्वार्थ की चाशनी में डूबा हो।