‘गोल-गोल रानी, इत्ता-इत्ता पानी’, गंजीपारा की गलियों में बच्चों का खेल। भारी बारिश की चेतावनी देते काले बादल और बनते-बिगड़ते मौसम के बीच खिलखिलाता बचपन। अचानक एक कड़क आवाज गूंजी- ‘भीतर आ जाओ, भीग जाओगे’। बाप की ही होगी, शायद! इसलिए सुनते ही सभी सरपट भागे। घर के बरामदे में पहुंचे। एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और फिर खेलने लगे। पढ़िए वार्डों के परिसीमन पर टिप्पणी...
इस पूरी घटना पर गौर करिए। बच्चों ने पिता की आज्ञा का पालन किया, किन्तु खेल नहीं छोड़ा। वहीं पिता को बच्चों के खेल से परहेज नहीं था, उस कड़कती आवाज़ के पीछे सुरक्षा की चिंता थी। इससे पता चलता है कि बच्चे निर्भीक हैं। उनमें निर्णय लेने की क्षमता भी है। निश्छल हैं, कपटी नहीं। उनमें खेलने की लगन दिखाई दे रही है। खेल के प्रति समर्पण भी है। शर्म से पानी पानी होगी सियासत...
सियासतदारों को इनसे कुछ सीखना चाहिए। पता नहीं किसकी आवाज कानों में पड़ी और सभी सेवकों ने जन मुद्दे से मुंह फेर लिया। जिम्मेदार सवाल सुनने को तैयार नहीं। उनके कानों में जूं तक नहीं रेंग रही। कल तक जिस 32 करोड़ की योजना में भ्रष्टाचार को लेकर हल्ला मचा रहे थे, आज वह एजेंडे से गायब है। गुरुवार को होने वाली परिषद की बैठक में इस पर चर्चा ही नहीं होगी। नगर सरकार के हिस्सेदार भी शायद ही मुंह खोलें। असरकार के दमदार भी मुंह में उंगली रखकर बैठेंगे।
माना 'पिताजी' ने सुरक्षा (समझौते) के मद्देनज़र बाहर खेलने (मौका निरीक्षण) से मना किया होगा। कम से कम बरामदे (नगर पालिका परिषद) में तो पूरी शिद्दत से खेलकर (मुद्दा उठाकर) समर्पण दिखाते। यह जनहित के मुद्दों पर आपकी गंभीरता को प्रदर्शित करता। अरे! जब ड्रामा शुरू ही किया था तो मंच पर प्रस्तुति देने में कैसी हिचकिचाहट? थोड़े ही कोई सूली पर चढा देता!? कहीं चुनावी मंच पर इस ड्रामे की प्रस्तुति का इरादा तो नहीं? सोचना भी मत!
अब कागजी घोड़ों की कहानी से 'फ़िल्म हिट' नहीं होने वाली। मंच के भोपूं पर एक-दूसरे पर छीटाकशी का भी लोग सिर्फ मज़ा ही लेंगे। हाथ कुछ भी आने वाला नहीं है। जनता को बेवकूफ मत समझिए। ये पब्लिक है, सब जानती है। समझती है कि कैसे लाख-डेढ़ लाख के कार्यों का मौका निरीक्षण हो जाता है और क्यों 32 करोड़ की योजना के लिए आनाकानी की जाती है।
अब ये मत कहना कि 10 साल बाद भी जांच होगी तो रेत-मुरुम गायब ही मिलेगी! ऐसे बहाने 5 करोड़ की सड़क के लिए भी गढ़े गए थे। हुआ क्या? एक इंच सड़क भी खुदवा न सके। ले देकर डामर की ऊपरी परत ही बिछ पाई। मुआवजा प्रकरण आज भी लटका हुआ है। न जाने कितने फर्जी नाम जोड़े गए थे जो आज काटे जा रहे हैं। पालिका के कारनामे पब्लिक से छिपे नहीं हैं।
आखिरी के दो महीने में आप चार जगह चौपाटी बनाने का निर्णय लेंगे? हाईटेक बस स्टैंड के लिए जगह निर्धारित करेंगे? कमाल की सूझबूझ है आपकी! यहां कोरोना काल में सीएमओ को दी गई विदाई पार्टी का जिक्र जरूरी हो जाता है। खुद जिम्मेदारों ने गलती की थी वर्ना ठीकरा किसी गरीब पर फूटता! लापरवाही का इससे बड़ा उदाहरण कोई हो नहीं सकता।
सबसे बड़ी बात ये कि आप गलती करते हैं, पर मानते नहीं! स्वीकारते नहीं! सुधारते भी नहीं! लगभग तीन महीने बाद जब मतदाता के सामने जाएं तो गृहकार्य करके जाइयेगा। जवाब देने में दिक्कत नहीं होगी। पब्लिक के सवाल सुनकर कहीं 'पर' कतरन (परिसीमन) का गुणा-भाग भी माइनस में न चला जाए! वैसे भी आपने गंजीपारा वार्ड से 'गंजीपारा' को ही गायब कर दिया है।
'कप्तान' के टिप्स सभी के लिए एक हो सकते हैं, कितने कारगर साबित होंगे ये समय बताएगा, किन्तु जनता के प्रश्न हरेक के लिए अलग ही होंगे। भीड़ को भेड़ समझने की भूल महंगी पड़ सकती है। जल आवर्धन में भ्रष्टाचार को ठंडे बस्ते में डालना आपकी काबिलियत को कटघरे में खड़ा करेगा। मुद्दे को मुर्दा बताकर दफन करने से नेतृत्व की कमजोरी उभरेगी। पिछले चुनावों में मतदाता का रुख बताता है कि मजबूत इरादे वाले नेता ही ट्रेंड में हैं। अभी भी वक़्त है 'नेता जी', सम्भल जाइए।