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इसलिए कार्यकर्ताओं को भगवा नीति से जोड़ने की कवायद शुरू हो गई है। दिया गया प्रशिक्षण इसका प्रमाण है। इसी के समानांतर चल रही है पंडित जी की पाठशाला। उनका हर प्रवास नए पाठ का सबब बनता जा रहा है। कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत हैं:-
अस्थाई गौशाला के पास भगवा ध्वज फहराना और कुछ दिनों बाद वहीं आधी रात बैठकर रामायण की चौपाइयां गाना! दो-चार दिन बीतने पर कबीर आश्रम में युवाओं के साथ बैठना और उन्हें संगठन गीत सुनाना। सुपंथ का पाठ पढ़ाना। गौर करने वाली बात ये कि पंडित जी के तीनों ही कार्यक्रमों में आसपास के चेहरे अलग दिखे। जाहिर है, वे चमचे नहीं, नेतृत्व पैदा करने की दिशा में अग्रसर हैं।
हालात जग जाहिर हैं, पार्टी के। नेताप्रतिपक्ष जेल में है और उपाध्यक्ष वायरल वीडियो के चंगुल में। नगर पालिका चुनाव सर पर है, किन्तु पार्टी नेतृत्व उदार नहीं। पंडित की पारखी नजरें इसे भी ताड़ गईं। तभी तो बातों ही बातों में जिम्मेदार को मंडल बड़ा करने का सबक सिखा गए। हालांकि दिया गया होमवर्क अभी अधूरा ही है। ऐसी कोई मंशा भी दिखाई नहीं दे रही।
प्रशिक्षण में भाषा पर संयम रखा, किन्तु तेवर तल्ख ही थे। कार्यकर्ताओं को कुछ ऐसे बांधा, बोले- तालाब में पड़ा पत्थर एड़ियां रगड़ने के काम आता है, लेकिन तराशे जाने के बाद उसी की पूजा होती है। आशय यह कि जिस दिन हरेक कार्यकर्ता भाजपा को जान जाएगा, पार्टी के सिद्धांतों को आत्मसात कर लेगा, उस दिन नेता खुद उनकी दहलीज पर पहुंचने के लिए मजबूर हो जाएंगे। इसके बाद खैरागढ़ में कभी हार नहीं होगी।
अब इसके तार कोर कमेटी की उस बैठक से जोड़िए, जिसमें पूर्व विधायक ने कहा था, ‘खैरागढ़ आते-आते हार गए’! बात बाहर आई तो भगवा गमछों के गुलाबी छींटें छिपाने की होड़ मच गई। 'वफादार' सफाई देने पहुंचे। 'ईमानदारों' ने दूरी बना ली। इधर पार्टी की हार के बाद आभार जताने वालों में गिनती के लोग दिखे थे।
पंडित जी ने वीवीआईपी कल्चर से आगे की राह पकड़ी। जब भी आए किसी न किसी आम आदमी को खास बना गए। कोरोना काल में मजदूरों के लिए खाना बनाने वाली दंपति को सम्मानित किया। उनके पैर छुए। वहीं खैरागढ़ में आम आदमी के बीच जन्मदिन मनाने वाले पहले वीवीआईपी बन गए। उत्सव के बीच समस्याएं आईंं तो असहज नहीं हुए। बात सुनी और निपटारे का आश्वासन भी दिया।
मिलीजुली सरकार चलाने की आदत गई नहीं है। अफसरशाही का मोह छूटने का नाम नहीं ले रहा। इसलिए स्थानीय मुद्दे नज़र नहीं आते। संवेदनाएं मरी हुई सी प्रतीत होती हैं। इसलिए किसी भी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं मिलती। असरकार की भूमिका शून्य है।
तभी तो मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन नहीं मिलने से जान जाने के बाद भी ये जिलाध्यक्ष के जगाने पर जागे। हालही की घटना ले लीजिए, शहर में सात दिन पहले झोलाछाप डॉक्टरों के गलत इलाज से 32 साल के युवक की मौत हो गई, प्रशासन ने जांच के नाम पर खानापूर्ति की और 'नेताजी' आज भी मुंह पर उंगली रखकर बैठे हुए हैं।
पाठ्यक्रम में एक अध्याय इसका भी बेहद जरूरी है, महाराज! अबकी बार आएं तो कार्यकर्ताओं में संवेदनशीलता जगाएं, स्थानीय मुद्दों पर विरोध करना भी सिखाएं।
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