नायक के किरदार को उभारने के लिए किसी भी कृति में खलनायक का सशक्त होना बेहद जरूरी है। रामायण में श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तो रावण प्रकांड विद्वान और शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता। उसका अहम उसे ले डूबा। अहंकार न होता तो दशानन की दुर्दशा न होती। सोने के महल का मालिक वनवासी के हाथों मारा न जाता।
फिर इसे असत्य पर सत्य की विजय बताना। युगों-युगों तक इस युद्ध की याद दिलाना। हर साल अहंकारी के पुतले का कद बढ़ाना और आतिशबाजी के साथ मिनटों में उसे जला देना। कोई दो मत नहीं कि परंपरा सभी ने निभाई, किन्तु स्पर्धा ने दशहरे के आयोजन में छिपे संदेश को ही भुला दिया। पुतले की ऊंचाई बढ़ाने की जिद में उत्सव के बहाने सियासत की जद (लक्ष्य) साधी गई।
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आदर्श के रूप में श्रीराम पूजे गए, लेकिन राजनीति ने रावण के अहंकार को बाजार दिया। धीरे-धीरे पुतले की ख्याति आयोजकों के रसूख की पहचान बनी। श्रीराम के नाम का आधार लेकर खड़े सियासतदार भी, ‘तेरा रावण- मेरा रावण' में रम गए। ऐसे में मर्यादाएं कब तार तार हुईं, पता ही नहीं चला। ‘चंदा' बदनाम हुआ ‘वसूली' के रूप में। होना ही था। फिर चंदा देने वाले श्रीराम के चरित्र में थोड़े ही थे जो आदर्शवाद की गठरी लिए फिरते!
उन्होंने भी सारी हदें पार कर दीं। पूछने वाला कोई था नहीं! जिन्होंने जिम्मेदारी उठा रखी थी, वह खुद भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बन चुके थे। सिलसिला आज तलक जारी है। कोरोना काल में अफसरों ने संगीत नगरी के समाज सेवकों के भाव नहीं देखे, बल्कि सेवा के भाव (दाम) तय कर दिए। नक्शे में नाला ढूंढने का अभिनय कब्जेधारी को छूट देने का उदाहरण मात्र है।
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ऐसे अफसरों से कर्तव्यनिष्ठता की उम्मीद करना न्यायसंगत कैसे हो सकता है!? जिस दिन सेवा के भाव तय किए, उसी दिन वे बहती गंगा में हाथ धोने के अधिकारी हो गए। कुछ तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने जाते जाते डुबकी भी लगाई। बाजार में जो सेनेटाइजर 320 रुपए में मिल रहा था, उसे 490 रुपए लीटर के हिसाब से खरीदा। अच्छा हुआ जो अब तक फ़ाइल नहीं बनी है, वरना तकरीबन दो लाख का घोटाला सामने आता। ठीक जनपद पंचायत की तरह।
कोशिश पूरी थी, मैडम की। मास्क खरीदी का चेक साथ लेकर गई थीं ताकि अंतर की राशि का सौदा हो सके। हुआ ठीक उल्टा, निर्धारित अवधि पूरी होने पर ठेकेदार के ही हाथों चेक वापस भेजना पड़ा। हां जी ये वही लोग हैं, जो कोरोना के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं और योद्धाओं के लिए रसद का इंतजाम तक नहीं कर पाते। इस काम के लिए उन्हें लिखित आदेश का इंतजार रहता है, लेकिन कमीशन के लेन देन को इशारों में खूब समझ जाते हैं।
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आपके ‘होनहार', बेचारे समझ नहीं पा रहे हैं, अपनों को बचाएं या अफसरों को पकड़ें? ऊहापोह की स्थिति है। भाजपा ने मंडल अध्यक्ष तो नया चुन लिया, लेकिन प्रतिपक्ष का नेतृत्व जेल में बंद है। परिषद की पिछली दो बैठकें बिना नेता प्रतिपक्ष के हुईं। भले ही यह पालिका अधिनियम के विपरीत बनाया गया पद हो, किन्तु जिम्मेदारी की शपथ को तो झुठलाया नहीं जा सकता! उपाध्यक्ष रहते हुए विपक्ष की भूमिका निभाने वाले पर वायरल वीडियो की आफत आ गई। लगभग सालभर से ज्यादा हो गए वार्ड नंबर-3 का पार्षद पद खाली हुए, परंतु किसी ने सवाल नहीं उठाया। एक हिस्सेदार और बढ़ाना औचित्यहीन लगा हो, शायद! काम तो वैसे भी चल ही रहा है।
नगर सरकार अफसरों को बचाने की फिराक में जनता के प्रति अपना दायित्व भूल चुकी है। कार्यकाल के दिन गिन रही है, याद भी नहीं करना चाहती। करती तो वार्ड नंबर-3 को प्रतिनिधित्व मिल गया होता। नाले पर से कब्जा हटाने जैसे जनहित के फैसले फौरन लिए जाते। चालान काटकर वाहवाही लूटने की बजाय मास्क बांटकर सहूलियत की पैरवीं की जाती। कमाल है ना! डंडा दिखाकर जनता को लूटो और कागज में काम दिखाकर सरकार को। नैतिकता बची ही नहीं है। अगर होती तो असरकार का अहम किरदार इस्तीफा दे चुका होता।
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ऐसा तो हुआ नहीं, चार के साथ बैठ कर नगर की परंपरा अलग तोड़ दी। बस्तर में जिसे जीवित रखने के तरीके सुझाए गए, खैरागढ़ में उसे तोड़ने की मौन स्वीकृति दे दी गई। बस्तर ने कहा- अलग-अलग संप्रदाय के लोग भले ही न पहुंचें, रथ की परिक्रमा पूरी होगी। सैलानी सीमित हुए तो भी चलेगा, लेकिन त्योहार मनेगा। उत्सव का उत्साह टूटने नहीं देंगे। एक बार पूछते तो सही, नगर वासियों से। रचनात्मकता के साथ मनाए गए पर्व से नई ऊर्जा का संचार होता। यही ऊर्जा कोरोना के विरुद्ध युद्ध लड़ने में काम आती।
बिहार की चुनावी सभाएं देखिए, कोरोना को मुंह चिढ़ा रही हैं। ज्यादा दूर नहीं, मरवाही हो आइए। वो किताब बताइए जिसमें लिखा गया हो कि जहां नेता होंगे वहां वायरस नहीं फैलेगा! और अगर है तो यह भी सुन लीजिए, खैरागढ़ में पहले केवल रियासत का दशहरा मनता था। ‘राजा साहब' शाही बग्घी में सजधज कर निकलते थे। फिर इसमें भी सियासत ने भांजी मार ली। दो जुलूस निकालने लगे। अब दोनों तरफ ज्यादातर लोग राजनीतिक चोला धारण किए दिखते हैं।
ऐसे में चुनाव मानकर ही अनुमति दे देते। कह देते एक ही जुलूस निकलेगा। बता देते शाही बग्घी के साथ कितने ‘चम्मच' होंगे और कितने लोटे, बिन पेंदी वाले भी! इसके बाद मनोरंजन के कार्यक्रमों की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। लोग इन्हें एक साथ देखकर बातें बना लेते। खैरागढ़िया माहिर हैं, सियासी बातों के रस का स्वाद इन्हें खूब भाता है।
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इसके अलावा अपनी रुचि की तमाम पाबंदियां लगा लेते। चालान की राशि बढ़ा देते। इस बहाने खाने के लिए कम से कम खजाना ही भर जाता। यह करने की बजाय उस युग के उद्भट राजनीतिज्ञ (रावण) का कद घटा दिया। लोकतंत्र के राजाओं ने भी चुप्पी साध ली, जिन्हें शाही बग्घी में बैठे देखने की आस थी, वह भी खामोश रहे।
राजा साहब! नक्शे में नाला ढूंढने वालों को आपने खूब निपटाया। अब सियासी जद (आघात) पर भी लगाम कसने का समय है। योग्य नीति निर्धारकों से राजनीति सही दिशा में गतिमान होगी, रावण का कद भर घटाने से अहंकार का अंत नहीं होने वाला।
आरामगाह छोड़िए महाराज! दशहरे पर दर्शन दीजिए। प्रजा अपने राजा का मुखड़ा देखकर तसल्ली करना चाहती है कि लोकतंत्र में सियासी षड़यंत्र से परे राजतंत्र का न्याय मंत्र आज भी जीवंत है।
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